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निर्जराधिकार जो कुणदि बच्छलतं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्मि । सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयब्वो ॥२३५।।
मोक्षपथस्थित तीनों, साधन व साधुवों में रति करता ।
जो बुध वह है वत्सल, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३५॥ __ यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे । स वात्सल्यभावयुतः सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ||२३५३॥
यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेदबुद्ध या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलभकृतो नास्ति बंध: किं तु निरव ॥२३॥
नामसंज्ञ-ज, वच्छलत्त, लि, साहु, मोक्खमग्ग, त, वच्छलभावजुद, सम्मादिद्वि, मुणेयव्व । धातुसंज्ञ-कुण करणे, मग अन्वेषणे । प्रातिपदिक यत्, वत्सलत्व, त्रि, साधु, मोक्षमार्ग, तत्, वात्सल्यभावयुत, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-कृत्र करणे, मग अन्वेषणे चुरादि। पवविवरण-जो यः-प्रथमा एक० । कुणदि फरोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । बच्छलत्तं वत्सलत्व-द्वितीया एक० । तिण्हं प्रयाणां-षष्ठी बहु । साहूण साधूनां-षष्ठी बहु० । मोक्खमग्गम्हि मोक्षमार्गे-सप्तमी एक० । सो स:प्रथमा एक० । वच्छलभावजुदो वात्सल्यभावयुतः-प्रथमा एकवचन । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एकवचन । मुणेयव्यो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २३५ ।।
तात्पर्य—सम्यग्दृष्टि पुरुषका रत्नत्रयमें व रत्नत्रयधारी पुरुषोंमें निश्छल वात्सल्य
होता है।
टोकार्थ --निश्चयसे सम्यग्दृष्टि टंकोत्कोर्ण एक शायकभावमयपनेसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रभावोंका अपनेसे अभेद बुद्धि द्वारा अच्छी तरह देखनेसे मोक्षमार्गका वत्सल है, अतिप्रीतियुक्त है । इस कारण इसके मार्गको प्रप्राप्तिसे किया गया कर्मबंध नहीं है, किन्तु निर्जरा हो है। भावार्थ---वत्सलपना प्रीतिभावको कहते हैं। जो मोक्षमार्गरूप अपने स्वरूपमें अनुरागी हो उसके मार्गकी अप्राप्ति नहीं और मार्गानुपलम्भकृत कर्मबंध नहीं । कर्म रस (फल) मात्र प्रतिफलित होकर खिर जाता है इसलिए निर्जरा ही है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टि के स्थितिकरणागका निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त वात्सल्याङ्गका वर्णन किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गसाधक स्वकीय रत्नत्रय धर्मको वत्सलता व भक्ति रखता है । (२) सम्यग्दृष्टि रत्नत्रयके आधारभूत धर्मात्मावोंको वत्सलता व भक्ति करता है । (३) सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको अपनेसे अभेदरूप अनुभवनेके कारण भार्गवत्सल है । (४) मार्गानुपलम्भकृत अथवा अवात्सल्यकृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है।