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________________ ४१८ समयसार विजारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेयव्बो ॥१३६॥ विद्यारथ प्रारोही, जो हितकर मार्गको प्रकट करता । वह है ज्ञानप्रभावी, सम्यग्दृष्टो उसे जानो ॥ २३६ ।। विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु श्रमति यश्चेतयिता । स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ।। २३६ ।। यतो हि सभ्यग्दृष्टिः टंकोत्कीरोंकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्त शक्ति र बोधेन प्रभा. बजननात्प्रभावनाकरः ततोस्य ज्ञान प्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बधः किं तु निर्ज रेल । रुन्धत् नामसंज्ञ-विज्जारह, आस्तु, मणोरहपह, ज, चंदा, जिणणाणपहावि, सम्मादिष्टि, मुगेयन्त्र । धातुसंज्ञ---.भम भ्रमणे । प्रातिपदिकः---विद्यारथ, आरूढ, मनोरथपथ, यत्, चेतायन, तत्, जिमज्ञान प्रभाविन्, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधात-भ्रम अनवस्थाने दिवादि । पदविवरण --विजारहं विद्यारथंद्वितीया एकवचन । आरूढो आरूढ:--प्रथमा एक० । मणोरहपहेसु मनोरथपथेषु-सप्तमी बहः । भमई सिद्धान्त-~-(१) जानी अपने में अपने स्वभावपरिणमनको अपनेसे गभेदबुद्धिसे स्वयं देखता है। दृष्टि--१-- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रयोग—अपनेमें प्रात्मत्वकी प्रतीति सहित प्रपने सहजस्वरूपको जानते हुए ज्ञानमात्र अपनेमें अपनी उपासना करना ।। २३५ ।। ___ प्रागे प्रभावना गुण कहते हैं-[यः] जो जीव [विधारथं आरूढः] विद्यारूपी रथ पर प्रारूद हुमा [मनोरथपथेषु] मनोरथके मार्ग में [भ्रमति] भ्रमण करता है [स: चेतयिता] वह ज्ञानी [जिनशामप्रभावो] जिनेश्वरके ज्ञानको प्रभावना करने वाला [सम्यग्दृष्टिः] सम्यदृष्टि है [ज्ञातव्यः ऐसा जानना चाहिये ।। टोकार्य-निश्चयसे चूंकि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपनेसे ज्ञान की समस्त प्राक्तिके जगानेके द्वारा प्रभावके उपजानेसे प्रभावना करने वाला है, इस कारण इसके ज्ञानको प्रभावनाके प्रप्रकर्षकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु निर्जरा हो होती है । भावार्थ--प्रभावना नाम प्रकृष्टरूपसे हुवानेका है, जो अपने ज्ञानको निरंतर अभ्यास से प्रगट करता है, बढ़ाता है उसके प्रभावना अङ्ग होता है, ज्ञानीके ज्ञानविकास वृद्धिगत है उसके अप्रभावनाकृन कर्मका बन्ध नहीं है । जानीको भूमिकामें कर्म रस देकर खिर जाता है इस कारण निर्जरा ही है । यहाँ गाया ऐसा कहा है कि जो विद्यारूपी रथमें प्रात्माको स्थापन करके भ्रमण करता है वह ज्ञानको प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है सो यह निश्चय प्रभावना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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