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________________ निर्जराधिकार ४१६ बंध नवमिति निजः संगतोऽष्टाभिरंगः, प्राग्नद्धं तु क्षयमुपायन निर्जरोज्जम्भरगेन । सम्यग्दृष्टि: भ्राम्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जो यः-प्रथमाया। जिणणाणपहावी जिनज्ञानप्रभावी-प्र. है । ब्यवहारमें जिनबिम्बको रथ में विराजमान कर नगर उपवन प्रादिमें बिहार कराके धर्मको प्रभावना की जाती है, निश्चयसे ज्ञानको प्रभाव ना करके धर्मको प्रभावना की जातो है। अब कर्मका नवीन बंध रोककर निर्जरा करने वाले सम्यग्दृष्टि की महिमा कहते हैंरुन्धन इतम्यादि । अर्थ-स्वयमेव अपने निज इसमें मस्त हुना, प्रादि मध्य अन्तरहित सर्वव्यापंक एक प्रवाहरूप धाराबाही ज्ञानरूप होकर नबीन बन्धको रोकता हुना और पहले गंधे हुए कर्मको अपने प्रष्ट अङ्गोंके साथ निर्जराको बढ़वारी द्वारा क्षयको प्राम कराता हुमा सम्यग्दृष्टि जीव प्राकाशके मध्यरूप प्रतिनिर्मल रंगभूमिमें प्रवेश कर नचता है याने विकसित होता है। भावार्थ- सम्यग्दृष्टिके शंकाटिकृत नवीन बन्ध तो होता. ही नहीं और पाठ प्रङ्गोंसाहित होने से निर्जरा वृद्धि गत है उससे पूर्वबद्ध का नाश होता है । इसलिए यह एक प्रवाहरूप ज्ञानरूपी रसको पीकर निर्मल आकाशरूप रङ्गभूमिमें नृत्य करता है याने ज्ञानविलास करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्वादि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयका प्रभाव है तथा अल्पस्थिति अनुभाग लिए मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीके बिना और उसके साथ रहने वाली अन्य प्रकृतियोंके बिना घातिया तथा अघातियानो प्रकृतिका बाध गीगा है मोदी जैसा बन्ध मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी सहित दशामें होता है वैसा नहीं होता। अनन्त संसारका कारण तो मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धो हैं उनका प्रभाव होनेके पश्चात् उनका बन्ध नहीं होता । जब प्रात्मा ज्ञानी हुआ तब अन्य बन्धकी गिनतो क्या ? वृक्षकी जड़ कटनेके बाद हरे पत्ते रहने की क्या अबधि ? इस कारण अध्यात्मशास्त्र में सामान्यपनेसे ज्ञानीका ही प्रधान कथन है । ज्ञानी हुए पश्चात् शेष कर्म सहज ही मिट जायेंगे तथा परम सहज आनन्द भोगेगा । जैसे कि कोई दरिद्र पुरुष झोपड़ी में रहता था उसको भाग्योदय से धनसे पूर्ण बड़े महलको प्राप्ति हुई। उस महलमें बहुत दिनका कूड़ा भरा हुप्रा था । स पुरुषने जब पाकर प्रवेश किया उसी दिन यह तो महलका धनी बन गया । अब कूड़ा मारना रह गया सो वह क्रमसे अपने बल के अनुसार झाड़ता ही है । जब सब कूड़ा झड़ जायगा तब उज्ज्वल हो जायगा । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथा में वात्सल्यभाषयुत सम्यग्दृष्टिका आशय बताया गया था । अब इस गाथामें ज्ञानीको प्रभाबनाङ्गधारकताका वर्णन किया है। तथ्यप्रकाश – (१) ज्ञानकी समस्त शक्तिके जागरणसे सम्यग्दृष्टि धर्मप्रभावक है। (२) ज्ञानी ज्ञानरथपर सारूढ होकर अभीष्ट शिवमार्गमें अर्थात रत्नत्रयमें विहार करता है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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