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________________ ४२० समयसार स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नदति गगनाभोगरंग विगाह्य ।।१६२॥ इति निर्जरा निष्क्रांता ।। २३६ ॥ इति श्रीमबमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातो निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्क ॥ ६ ॥ ए । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए० । मुणेयव्यो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २३६ ।। (३) सम्यग्दृष्टि अन्तस्तत्त्वोपलब्धिरूप विद्यारपपर प्रारूड होकर ख्याति लाभ इच्छा प्रादि चित्सकल्लोलोंको सहजात्मध्यानरूप शस्त्रसे नष्ट कर देता है। (४) अप्रभावनाकृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है। (५) सम्यग्दृष्टिके पूर्वसंचित कर्मको निश्चित निर्जरा है । (६) शुद्धन्यके प्राश्रयसे उत्पन्न नि:शंकादिष्ट गुण सम्बरपूर्वक भावनिर्जराके उपादान कारणभूत हैं । (७) व्यवहाररत्नत्रय साधक है, निश्चयरलत्रय साध्य है । (८) व्यवहाररत्नत्रयमें स्थित सरागसम्यग्दृष्टिके योग्य प्रवृत्तिरूप भी निःशंकादि अष्ट गुण होते हैं। सिद्धान्त--(१) निश्चयज्ञानप्रभावक गुण द्वारा शानी जो निजशुद्धिके लिये संवरपूर्षिका भावनिर्जरा करता है। दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहारनय (७३)। प्रयोग---ज्ञानरूप रथमें प्रारूद होकर याने ज्ञान में उपयोगको लगाकर सहजानन्दमय जानतत्त्वको प्रभावनासे कृतार्थ होनेका पौरुष करना ।। २३६ ॥ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार व उसकी श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्यातिकी सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टीकामें निर्जराप्ररूपक छठवां मंक समाप्त हुमा ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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