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बग्धाधिकार
अथ बंधाधिकार
अथ प्रविशति बंधः । रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्या प्रमत्तं जगत् कोडतं रसभारनिभरमहानाट्येन बंध धुनत् । प्रानन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्था स्फुटं नाटयद् धीरोदारममाकुलं निरुपविज्ञानं समुन्मज्जति ॥१६३॥
जह णाम कोवि पुरिसो गोहभत्तो दु रेणुवहुलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्येहिं वायामं ॥१३७॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीश्रो । सच्चित्ताचित्ताणं करेइ दवाणमुबघायं ॥२३८॥ उवधायं कुवंतस्स तस्स गाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज हु किंपचयगो दु स्यबंधी ॥२३६॥
जो सो दु गोहभावो तसि गरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विरुणेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥२४॥ एवं मिच्छादिट्ठी वट्टतो वहुविहासु चिट्ठासु ।
रायाई उपयोगे कुव्वंतो णिप्पइ रयेण ॥२४॥ नामसंज्ञ-जह, णाम, क, वि, पुरिस, रोहभत्त, दु, रेणुबहुल, ठाण, य, सव्य, वायाम, य, तहा, तालीतलकलिवंसपिडी, सच्चित्ताचित्त, दव, उपघाय, उबघाय, त, माणाविह, करण, णिच्छयदो, किंप
अनबन्ध तत्त्व प्रवेश करता है। जैसे कि नृत्यमंचपर कोई स्वांग प्रवेश करता है, उसी प्रकार जीवकी रंगभूमिमें बन्धतत्व प्रवेश करता है। उसमें सर्वप्रथम बंध स्वांग मिटाने वाले सभ्य ज्ञानके अभिनन्दन में मंगलरूप काव्य कहते हैं--रागोद्गार इत्यादि । अर्थ----जो विकाररागके उद्गाररूप महारस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (मतबाला) करके रसपूर्ण महान् नाटय के द्वारा क्रीड़ा करते हुए बन्धको दूर करता हुअा अानन्दरूपी अमृतका