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________________ ४५८ समयसार सब्वे करे जीवो अभवमागोण तिरियणेरयिए । देवमणुये य सव्वे पुण्ण पावं च णयविहं ॥२६॥ धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोयलोयं च । मब्वे करेइ जीवो यज्झवमाणेगा अपाणं ॥२६॥ (युगलम) अध्यवसितसे प्राणी, सब कुछ करता हि जीव अपनेको । पशु नारक देव मनुज, नानाविध पुण्य पापोंको ॥२६॥ धर्म अधर्म हि अथवा, जीव अजीव व अलोक लोक तथा । अध्यवसितसे प्रारणी, अपनेको सर्व कर लेता ॥२६६ ।। सर्वान् की जीवो व्यवसानेल नियंङ नैर्गयकान् । दशमनुजांश्च मर्वान पृष्यं पापं च नैविधं ॥१६८।। धर्माधर्म च तथा जीवाजीवी अलोकलोक च । गर्वान् करोति जीवः अव्यवमानेन आत्मानं ।। ६६ ।। यथायमेवं ऋिपागहिसाध्यबसानेन हिमकम् इतराध्यवसानैरितरं च अात्मात्मानं फुर्यात्, तथा विपच्यमान नारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतियंगध्यवसानेन तिर्य, विषय नामसंज्ञः सच, जीब, अभावमाण, तिरिय यथे, देवमय, य, मन्च, पृष्ण, पाप, च. विह मम्मामम्म, रहा, जोया जात्र, आलोयलाय. मात्र, बि, सा. अ । धातुसंज्ञ- कर करण । नपने वो करने वाला कहा जाता है । टीकार्थ---जैग यह आत्मा ऐसे याने पूर्वोक्त क्रिया वाले हिसाके अध्यवसानसे अपने को हिसक करता है, और अन्य अध्यवसानोंसे यह प्रात्मा अपनेको अन्य बहुत प्रकार करता है; उसी प्रकार उदयमें आये हुए नारकके अव्यवसानसे अपनेको नारको करता है, उदयमें प्राय हुए तिर्यंच अध्यवसानसे अपने को तिर्यंच करता है, उदय में प्राये हुए मनुष्यके अध्ययसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आये हुए देवके अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदय में प्राये हुए मुख आदि पुण्यके मध्यवसानसे ग्नपनेको पुण्यरूप करता है, उदयमें पाये हुए दुःख अादि पापके प्रध्धवसानसे अपने की पापरूप करता है । और उसी प्रकार जानने में पाये या धर्मास्तिकायके अध्यवसानसे अपनेको धर्मास्तिकायका करता है, जाने हुए अधर्मास्तिकाय के प्रध्यवसानसे अपनेको अधस्तिकाय रूप करता है, जाने हुए अन्य जीवके अध्यवसानसे अपनेको अन्य जीवरूप करता है, जाने हुए पुद्गलके मध्यवसानसे अपनेकी पुद्गलरूप करता है, जाने हुए लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है, जाने हुए अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकालाशरूप करता है । भावार्थ----अपना परमार्थरूप नहीं
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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