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________________ बन्धाधिकार मानमनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् । तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन धर्म, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म; ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तर, ज्ञायमानपुद्गलाध्यवसानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं ज्ञायमानालोकावणाप्रातिपदिक-सर्व, जीव, अध्यवसान, लियङ नै रयिक, देवमनुज, सर्व, पुण्य, पाप, च, नेकविध, धमाधम च, नया, जीवाजीव, अलोकलोक, सर्व, जीव, अध्यवसान, आत्मन् । मूलधातु-दुका करणे । पददिवरण- सव्वे मन्-िद्वितीया बहु० । कारेइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवो जीव:-प्रथमा एव० | अज्झवसाणेण अध्यवसानेन-तृतीया एकवचन । तिरियणेरयिये तिर्यड नैरपिकान-हितीया बहु । देवमणुये देवमनुजान-द्वि० बहु । य च-अव्यय । सव्वे सर्वान-द्वि० बहु । पुण्णं पुण्यं पावं पापं-द्विन्दीया एक० । णयविहं न कविध-द्वि० ए० । धम्माधम्म धर्माधर्म-दि० ए० । च तहा तया-अव्यय । जीवाजीवे जाननेसे अज्ञानी प्रात्मा अपने आपको अनेक अवस्थारूप करता है याने उनमें प्रापा गा? प्रवर्तता है। स इसका नाम पर कर कहते हैं--विश्वात् इत्यादि । अर्थ-मोहमुलक सब द्रव्योंसे भिन्न होनेपर भी यह प्रात्मा जिस प्रध्यवसायके प्रभावसे अपनेको समस्तस्वरप करता है वह अध्यवसाय जिनके नहीं है वे ही मुनि हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सयुक्तिक बताया गया था कि अध्यवसान स्वार्थक्रियाकारी न होनेसे मिथ्या है। अब इन दो गाथावों में बताया है कि जीव अध्यभान हो अपनेको नानारूप बनाता है। तथ्यप्रकाश-(१) "मैं इसे मारू" ऐसे क्रियागर्भ हिंसाके अध्यवसान के द्वारा यह जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुप्रा अपनेको हिंसक बना देता है । (२) अन्य भी नाना प्रकार के क्रियागर्भ अध्यवसानसे स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा उन उनरूप अपने को बना देता है । (३) नरकगतिकर्मोदयजनित नरकभावोंके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको नारक बना देता है । (४) तिर्यग्गतिकर्मोदयजनित भावोंके अध्यवसान जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको तिथंच बना देता है । (५) मनुष्यगतिकर्मोदय जनित भावों के अध्यवसानके द्वारा स्वस्वभावसे च्यूत होता हुअा अपनेको मनुष्य बना देता है । (६) देव. गतिकर्मोदयजनित भावोंके अध्यवसानसे स्वस्वभाबसे च्युत होता हुअा अपने को देव बना देता है । (७) सातावेदनीयादिपुण्यकर्मोदयजनित सुखादि पुण्यभावके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभाव से च्युत होता हुआ अपनेको पुण्यरूप बना देता है । (८) असातावेदनीयादिपापकमोदय जनित परभावोंके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा अपनेको पापरूप बना देता है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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