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________________ बन्aाधिकार ४५७ बध्यते न मुख्यते । सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते मुच्यते च ततः पराकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि ततश्च मिथ्यैवेति भावः ॥ श्रमाध्यवसानेन निष्फलेन विमोहितः । तकिचनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।। १७१ ।। ।। २६७ ॥ बहु० 1 बज्झति बध्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया । कम्मणा कर्मणा - तृतीया एक० । जदि यदि हि-अध्यय । मुच्वंति मुख्यन्ते वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुबचन कर्मवाच्य क्रिया । मोक्तमगे मोक्षमार्गे - सप्तमी एक० । ठिदा स्थिताः - प्रथमा बहु० य च ता संप अव्यय । किं-अव्यय या प्र० एक० । करोसि करोषि - वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० क्रिया । तुमं त्वं प्रथमा एकवचन ।। २६७ ॥ भी परजीवके सराग परिणाम न हो तो वह नहीं बंध सकता सो वह अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न रहा । ४- परजीवको मुक्त करनेका विकल्प करनेपर भी परजीवके वीतरागपरिणाम नहीं होता तो वह मुक्त नहीं हो सकता सो यह प्रध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न रहा । ५ - किसीका अध्यवसाय परजोद में कुछ कर नहीं सकता, इस कारण अध्यवसायं स्वार्थक्रियाकारी नहीं और इसी कारण मिथ्या है। सिद्धान्त - १ - जीवके श्रध्यवसायका निमित पाकर पौद्गलकार्याणवरणायें कर्मरूप बँधती हैं । २- वीतरागपरिणामके निमित्तसे कर्मबन्ध हट जाते हैं । ३- परके अध्यवसाय का स्व आत्मामें कोई प्रभाव नहीं होता । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय व निमित्तदृष्टि ( ५३, ५३८ ) । २ - शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय व निमित्तदृष्टि (२४५, ५३ ) । ३ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याचिकनय ( २६ ) | प्रयोग - अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी नहीं होता यह जानकर श्रध्यवसायको हटाकर अविकार ज्ञानस्वभावको दृष्टि करना ॥ २६७ ॥ अब पूर्वगायोक्त अर्थको प्रगटरूपसे गाथा में कहते हैं: - [जीवः ] जीव [ श्रध्यवसानेन ]अध्यवसानसे [तियंरयिकान् ] तिथंच नारक [च देवमनुजान् ] और देव मनुष्य [ सर्वान् ] सभी पर्यायोंको [च] और [ नैकविधं पुण्यं पापं ] अनेक प्रकारके पुण्य पापोंको [ करोति] करता है [ तथा ध] तथा [धर्माणमं] धर्म प्रधर्म [जीवाजीयो] जीव प्रजीव [च] प्रोर [ प्रलोकलोकं ] लोक लोक [at] इन सभी को [ जीवः ] जीव [ अध्यवसानेन ] प्रध्यवसान से [आत्मानं ] मात्मस्वरूप [ करोति ] करता है । । तात्पर्य मोही जीव जिस परको व परभावको ग्रात्मरूप मानता है वह उसी ---
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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