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समयसार कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि ? इति चेत्
अन्झवसाणणिमित्तं जीवा बभंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करोसि तुमं ॥२६७॥
अध्यवसानसे बँधते, कोसे जीव छुटते हैं जो।
मोक्षमार्गमें सुस्थित, उनका फिर क्या किया तुमने ॥२६७॥ अध्यवसानिमित्तं जीवा बध्यते कर्मणा यदि हि । मुच्यते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वं ।।२६७।।
यत्किल बंधयामि भोधयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यबंधनं मोचनं जीवानां । जीवस्तु प्रस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान
नामसंज्ञ-- अज्झवसाणणिमित्त, जीव, कम्म, जदि, हि, मोवखमग्ग, ठेद, य, ता, कि, तुम्ह । धातुसंज–बज्झ बंधने, मुंच त्यागे, कर करणे । प्रातिपदिक-अध्यवसाननिमित्त, जीव, कर्मन्, यदि, हि, मोक्षमार्ग, स्थित, च, तत्, किम्, युष्मद् । मूलधातु--बन्ध बन्धने, मुच्ल मोक्षणे, डुकृत्र करणे । पदविकरण-अज्भवसाणणिमित्तं अध्यवसानिमित्त-अव्यय यथा स्यात्तथा क्रियाविशेषण । जीवा जीवा:-प्रथमा करता । क्योंकि इसके अध्यवसाय न होनेपर भी जीव अपने सरागवीतरागपरिणामों द्वारा बंध मोक्षको प्राप्त होता है और इसके अध्यवसाय होनेपर भी जीव अपने सरागवीतरागपरिणामके प्रभाव होनेसे बंध मोक्षको नहीं प्राप्त होता । इसलिये अध्यवसान परमें प्रकिचित्कर है इसी कारण स्वार्थक्रियाकारी नहीं और मिथ्या है।
अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं-अनेना इत्यादि । अर्थ-मात्मा इस निरर्थक अध्यवसानसे मोहित हुअा अात्मा ऐसा जगतमें कुछ भी नहीं है जिस रूप अपनेको नहीं करता हो । भावार्थ-यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुमा प्रात्मा चतुर्गति संसारमें जितनी अवस्थायें हैं, जितने पदार्थ हैं उन सब स्वरूप हुना मानता है, अपने विविक्त शुद्धस्वरूपको नहीं पहिचानता ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न होनेसे मिथ्या है । अब इस माथामें यह बताया गया है कि प्रध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कैसे नहीं है?
सध्यप्रकाश---१-कोई परजीवको बाँधनेका विकल्प करता है सो उसके विकल्प करने से यदि परजीव बँध जावे तब यह अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कहावेगा । २- कोई परजीव को मुक्त करानेका विकल्प करता है सो उसके विकल्प करनेसे यदि परजीव मुक्त हो जावे तो तब यह मध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कहावेगा। ३- परजीवको बांधनेका विकल्प करनेपर