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बन्धाधिकार
लुनामीत्यध्यवसान वन्मिश्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव ।। २६६ ।।
वर्तमान लट उत्तम पुरुष एकवचन | बंधेसि बन्धयामि विमोचेनि विमोचयामि वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक क्रिया । जा या एसा एषा प्रथमा एक० मूढमई मूढमतिः - प्रथमा एक० । णिरत्यया निरधिका-प्र० ए० । सा सा प्रथमा ए० हु खलु अव्यय । दे ते पष्ठी एक मिच्छा मिथ्या - प्रथमा एकवचन ॥ २६६ ॥ सयुक्तिक बताया गया है कि वह अध्यवसाय सब मिथ्या है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जो बात सोचनेसे होती नहीं उसका सोचना स्वार्थक्रियाकारी नहीं । (२) जो स्वार्थक्रियाकारी नहीं वह मिथ्या है । (३) मैं दूसरे जीवोंको सुखी दुःखी करता हूं यह अध्यवसाय मिथ्या है, क्योंकि इस श्रध्यवसायका दूसरे जीवपर कोई व्यापार नहीं होता । सिद्धान्त ---- ( १ ) परजीवोंके विषय में उनका कुछ करने का कुछ भी चिन्तन करना मिथ्या है |
दृष्टि - १ - संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित प्रसद्भुत व्यवहार ( १२४ ) |
प्रयोग --- किसी भी जीवके विषयमें दुःख सुख यादि करनेके चिन्तयन करनेको मिथ्या, अनर्थकारी जानकर इम ग्रध्यवसायको छोड़कर अविकल्प ज्ञानमात्र श्रन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना ।। २६६ ॥
४५.५
प्रश्न -- प्रध्यवसान अपनी प्रक्रियाका करने वाला किस कारण नहीं है ? उत्तर-[ यदि हि] यदि वास्तव में [ जीवाः ] जोव [ श्रध्यवसाननिमित्तं ] खुदके प्रपने अध्यवसान के निमित्तसे [कर्मणा ] कर्मसे [ बध्यंते ] बँधते हैं [च] प्रोर [ मोक्षमार्गे ] मोक्षमार्गमें [स्थिताः ] ठहरे हुए [मुच्यते ] कर्मसे छूटते हैं [ तत् ] तो [त्वं किं करोषि ] उनमें तू क्या करेगा ? तेरा तो बांधने छोड़नेका अभिप्राय विफल हुआ ।
तात्पर्य — जीव अपने ही भावसे कर्मसे बँधते व छूटते हैं, सो कोई उनकी परिणतिका विकल्प करता है तो वह निरर्थक है ।
टीकार्थ- 'मैं निश्चयतः बँधाता हूं छुड़ाता हूं' ऐसा जो श्रध्यवसान है उसकी अर्थ क्रिया जीवोंका बांधना और छुड़ाना है। सो जीव तो इस प्रध्यवसायके मौजूद होनेपर भी वे अपने सरागवीतरागपरिणामके प्रभावसे न बँधते हैं, न छूटते हैं । और मपते सरागवीतरागपरिणामके सद्भावसे तेरे अध्यवसायका प्रभाव होनेपर भी बँधते हैं तथा छूटते हैं, इस कारण परमें अकिचित्करपना होनेसे यह प्रध्यवसान कुछ भी स्वार्थक्रिया करने वाला नहीं है । इस कारण यह अध्यवसान मिथ्या ही है, ऐसा भाव है । भावार्थ---जो हेतु परमें कुछ भी न कर सके उसे किंचित्कर कहते हैं । सो यह बांधने छोड़नेका अध्यवसान परमें कुछ भी नहीं