SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार ४५४ एवं बंधहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वामावेन मिथ्यात्वं दर्शयति - दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जा एमा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ॥२६६॥ दुखी सुखी जीवोंको, करता हूं बांधता छुड़ाता हूं। यह ऐसी मूढमती, निरथिका है प्रतः मिथ्या ॥२६६॥ दुःखितस्तुखितान् जीवान् करोमि बंधयामि तथा विमोचयामि. या एषा मूदमतिः नरथिका सा खलु ते मिथ्या।। परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि बंधयामि विमोचयामोत्यादि वा यदेतदध्यव. मानं तत्सर्वमपि परभावस्थ परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुम नामसंश-दुनिखदसुहिर, जीव, तह, ज, एला, मूढमढ़, शिरस्थया ता, हु, तुम्ह, मिच्छा। धातुसंज-वर करणे, बन्ध बन्धने, वि मुंत्र त्यागे । प्रातिपदिक-दुःखितसुखित, जीव, तथा, यत्, एतत्, मढ़मति, निरथिका, तत्, खलु, मिथ्या 1 मूलधातु---डुकृत करणे, बन्ध बन्धने, वि मुच्छ्र मोक्षणे तुदादि।। पदविवरण- दुनिशाहिदे दुःयितयुखि मिटा दहुः । नीदे जीवान्-द्वि० बहु० । कमि करीमि उत्त प्रकारसे बंधकारणपनेसे निश्चय किये गये अध्यवसानका अपनी अर्थक्रियाकारिता न होनेसे मिथ्यापना यहाँ दिखलाते हैं----मैं [जोवान् ] जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी सुखी [करोमि] करता हूँ [बंधयामि] बंधाता हूं [तथा] और [विमोचयामि] छुड़ाता हूं। [या एषा से मूढमतिः] ऐसी जो तेरी मूह बुद्धि है [सा] वह [निरथिका] निरर्थक है अतएव [खालु] निश्चयसे [मिथ्या] मिथ्या है। तात्पर्य-विकल्पका बाह्यवस्तुके परिणमनपर कोई अधिकार नहीं, फिर भी पर.। पदार्थ में कुछ करनेका अध्यवसाय करना नियमसे मिथ्यात्व है । ___टोकार्थ-~-परजीवोंको दुःखी करता हूं, सुखी करता हूं इत्यादि, तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूं इत्यादि, जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभावका परमें ध्यापार न होनेसे स्वार्थक्रियाकारीपनका प्रभाव होने के कारण "मैं आकाशके फूलको तोड़ता हूं" इस अध्यवसायकी तरह वह झूठा है, मात्र अपने अनर्थ के लिए हो है। भावार्थ--जिस विकल्पका जो करनेका भाव है वह जब विकल्पसे होता ही नहीं है तो वह विकल्प निरर्थक है, मोही जीव परको दुःखी-सुखी प्रादि करनेकी बुद्धि करता है, किन्तु परजीष इसके विकल्प करनेसे दुःखी सुखी नहीं होते तब ऐसी बुद्धि निरर्थक होनेसे मिथ्या है। प्रसंगविवरण-~-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अध्यवसान हो कर्मबन्धका निमित्त कारण है और द्वितीय कुछ भी वस्तु बन्धका कारण नहीं है । अब इस गाथामें
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy