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নামিকা जायेत । न च जायते । ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति प्रतिनियमः । तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यंतप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् । न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्य वस्तु बंधहेतुः स्याद् ईर्यासमितिपरिणतयतींद्रपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवद् ब्राह्मवस्तुनो बंधहेतुहेतोरप्यबंधहेतुत्वेन बंधहेतुत्वस्यानकांतिकत्वात् । अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बंधहेतु: । अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बंधहेतु: ।। २६५ ॥ बंधो बन्धः-प्रथमा एक० । अन्झवसाणेण अध्यवसानेन-तृतीया एक० 1 बंधो बन्धः-प्रथमा एक० । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २६५ ।। निमित्तभूत अध्यवसायका विषयरूप कारण है अर्थात् पाश्रयभूत कारण है। (४) बाह्यवस्तु का त्याग अध्यवसायको हटानेके लिये किया जाता है। (५) बाह्य पदार्थ व्यक्त अध्यवसायका प्राश्रयभूत है । (६) अनुपचारित असद्भूत अव्यक्त विकारमें बाह्य पदार्थ प्राश्रयभूत भी नहीं हो पाते । (७) बाह्य वस्तुका प्राश्रय किये बिना अध्यवसान व्यक्त नहीं हो पाता । (6) अध्यवसायके प्राश्रयभूत बाह्य वस्तुका मनसे, वचनसे, कायसे त्याग होनेपर प्रध्यवसाय प्रकट हो हो नहीं सकता। (६) बाह्य वस्तु कर्मबन्धका निमित्त नहीं है, क्योंकि अध्यवसायका प्रभाव होनेपर बाह्यवस्तुप्रसंग होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (१०) बाह्य वस्तु जीवका कुछ भी नहीं है, प्रतद्भाव है, अत: बाह्यवस्तु बन्धहेतु नहीं होता। (११) अभ्यवसान ही जीवका तद्भाव है, विभाव है जो कि वातरोगपरमात्मतत्पसे भिन्न है, अतः मध्यवसान हो बन्धहेतु होता है। (१२) बाह्य वस्तुके होनेपर नियमसे कर्मबन्ध हो एसा मन्वय न होने से बाह्यवस्तु कर्मबन्धका कारण नहीं । (१३) बाह्य वस्तुके न होनेपर कर्मबन्ध नहीं हो ऐसा व्यतिरेक न होने से बाह्यवस्तु कर्मबन्धका कारण नहीं। (१४) बाह्यवस्तु कर्मबन्धका आश्रयभूत कारण है, पारोपित कारण है, विषयभूत कारण है, परम्परा कारण है । (१५) कर्मबन्धके निमित्तभूत उदयागत द्रव्यप्रत्ययमें कर्मबन्धका निमित्तपना भा जाये इसका निमित्त प्रध्यवसाय है इस कारण अध्यवसाय कर्मबन्धका मूल कारण है।
सिद्धांत-(१) प्राश्रयभूत इन्द्रियविषयोंको विकारका कारण कहना प्रारोपित व्यव. हार है । (२) कर्मबन्धका मूल निमित्त अध्यवसाय विकार है।
दृष्टि-१- प्राश्रये आश्रयी उपचारक व्यवहार (१५१)! २- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (२०१)।
प्रयोग-कर्मबन्ध के मूल कारण अध्यवसायके प्रतिषेधके लिये उस अध्यवसायके प्राश्र. यभूत इन्द्रियविषयोंका अर्थात् बाह्य समागमोंका त्याग करना चाहिये ॥२६॥