________________
५६८
समयसार प्याहताः कर्तारं कलयंतु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊर्ध्व तुद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यतु च्युतकर्तृभावमचल ज्ञातारमेकं परं ॥२०५॥ क्षणिकमिदमिहैक: कल्पयित्वात्म. तत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोविभेदं । अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतोप्रैः स्वयमयमभिषिचंश्चिञ्चमत्कार एव ॥२०६॥ वृत्यंशभेदतोऽत्यंत वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भनेत्य इत्कालिका मा ।।२०७।। ।। ३३२-३४४ ।।। देशितः-प्र० ए० । समयम्हि समये-म० ए० । सवकइ शक्यते-वर्त० अ० ए. भावकर्मप्रक्रिया। तत्तो ततःअव्यय । हीणो अहिओ हीनः अधिक:-प्र० एक० । काउं कतु-हेत्वथें कृदन्त क्रिया . जीवरूवं लोगमित्तं जीवरूपं लोकमात्र-द्वितीया एकवचन ॥ ३३२ ३४४ ।। असंयम, परभवगमन, मथुन, घात प्रादिको कौन करता है इस प्रश्न के उत्तरमें पूर्वपक्ष है कि इन सबको उस-उस जातिका उदित प्रकृतिकर्म किया करता है । (३) जीव जब एकान्ततः अकर्ता है तो ज्ञान, जागरण, ब्रत आदिको कौन करता है इस प्रश्न के उत्तरमें पूर्वपक्ष है कि उस-उस जातिके कर्मप्रकृतिका क्षयोपशम करता है। (४) इस सांख्योपदेशके पूर्वपक्षमें न कोई हिंसक है, न कोई व्यभिचारी है, हिंसक व्यभिचारी आदि सब प्रकृति हो है । (५) उत्तरपक्ष में विचारिये---यदि जीव सर्वथा अकर्ता है तो जीबका संसार ही नहीं, बन्ध ही नहीं तब मोक्षोपदेश व मोक्षका अभाव हो जायगा । (६) आत्मा अपने प्रात्माको करता है ऐसा कहकर यदि एकान्त अकर्तृत्वके दूषणसे बचनेका प्रयास किया जाय तो यह संगत नहीं है, क्योंकि प्रात्मा नित्य प्रसंख्यप्रदेशी है हीन अधिक प्रदेश होते नहीं, फिर उसका करना क्या कहलाया । (७) मौलिक तथ्य यह है कि ज्ञानस्वभाव प्रात्मा जो अनादि ज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्य है वह प्रकृतिजन्य मिथ्यात्वादिके ज्ञानके समयमें मिथ्यात्वादि झलकको प्रात्मरूप मानता हमा प्रज्ञानरूप ज्ञानपरिणमन का कर्ता होता है। (८) ज्ञानस्वभाव प्रात्मा जब ही ज्ञेयज्ञान. भेदविज्ञानसे पूर्ण होता है तब ही प्रात्माको ही प्रात्मरूप जानता हुअा ज्ञानमय ज्ञानपरिगमन से परिणामते हुए स्वयंका मात्र ज्ञाता होनेसे साक्षात् प्रकर्ता है । (६) भेदविज्ञानसे पहिले प्रज्ञानमय होनेसे जीव का है। (१०) भेदविज्ञान के पश्चात् ज्ञानमय होनेसे जीव प्रकर्ता है।
सिद्धान्त-(१) अज्ञानरूप परिणमने वाला जीव मिथ्यात्वादि भावकमका कर्ता है । (२) ज्ञानरूपसे ही परिणमने वाला जीव अकर्ता है ।
दृष्टि-- १- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। २-- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) ।
प्रयोग-संसारसंकटोंका मूल भेददिजानका प्रभाव जानकर भेदविज्ञानसे विविक्त किये गये प्रात्मस्वभावको उपयोगमें बनाये रहना ॥ ३३२-३ ४४ ।।