________________
२४६
समयसार
ज्ञानमया एवं भावा भवेयुर्न पुनर्ज्ञानमयाः ज्ञानिनश्व स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुर्न पुनरज्ञानमयाः ।। १३०-१३१।।
श्रावयामशाली व्याप्य भूमिकां । द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुतां
॥६८॥
प्र० बहु० । अज्ञानमयात् भावात् पंचमी एक० अव्यय । ज्ञानिनः षष्ठी एक० । ज्ञानमयाः सर्वे पुरुष एकवचन क्रिया ।। १३०-१३१ ।।
अज्ञानिनः षष्ठी एक० । बहुविधा: - प्र० बहु० । अपिभावाः प्रथमा बहुवचन । भवन्ति वर्तमान लट् अन्य
दृष्टि, प्रतीति व रुवि है उस काल यह आत्मा अज्ञानमयभाव वाला है ।
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४६), अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अशुद्ध निश्चय नय (४७) ।
え
प्रयोग — अविकार सहज शुद्ध प्रात्मत्वकी उपलब्धि बिना ही संसार संकट है, अतः अविकार सहजशुद्ध अंतस्तत्त्व में ग्रात्मत्वका अनुभव करनेका पौरुष करना ।। १३०-१३१ ।। अब अगली गाथाकी सूचनाके अर्थ श्लोक कहते हैं--अज्ञान इत्यादि । श्रज्ञानी अज्ञानमय भावको भूमिकाको व्याप्त कर आगामी द्रव्यकर्मके निमित्तभूत भावोंकी हेतुताको प्राप्त होता है । इसी अर्थको पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं- [जीवानां] जीवोंके [या] जो [ श्रतस्योपलब्धिः ] श्रन्यथास्वरूपका जानना है [स: ] वह [ प्रज्ञानस्य ] अज्ञानका [ उदयः ] उदय है [] और [ जीवस्य ] जीवके [ अश्रद्धानत्वं ] जो तत्वका अश्रद्धान है वह [ मिथ्यास्थस्य ] मिथ्यात्वका [ उदयः ] उदय है [तु] और [जीवानां ] जीवोंके [ यत् ] जो [ प्रवि
i] त्यागभाव [मवेत् ] है [असंयमस्य ] वह असंयमका [ उदयः ] उदय है [तु] मोर [जीवानां] जीवोंके [थः] जो [कसुषोपयोगः ] मलिन याने जानपनेकी स्वच्छता से रहित उपयोग है [ सः ] वह [ कषायोदयः] कषायका उदय है [तु यः ] और जो [जीवानां] जीवों के [ शोभनः] शुभरूप [ या ] श्रथवा [ अशोभनः ] अशुभरूप [ कर्तव्यः ] प्रवृत्तिरूप [ था ] प्रया [विरतिभावः ] निवृत्तिरूप [चेोत्साहः ] मन वचन कायकी चेष्टाका उत्साह है [सं] उसे [ योगोदय ] योगका उदय [जानीहि ] जानो । [ एतेषु ] इनके [ हेतुभूतेषु ] हेतुभूत होनेपर [ यत्त] जो [कर्मवर्गणागतं ] कार्मरणवग्रहागत पुद्गलद्रव्य [ ज्ञानावरणादिभावः प्रष्टविधं ] ज्ञानावरण प्रादि भावोंसे प्राठ प्रकार [परिणमते ] परिणमन करता है [ तत्] वह [कार्मरणवर्गणागतं ] कार्मणवर्गेणागत पुद्गलद्रव्य [ यवा ] जब [ खलु] वास्तव में [जीवनिबद्ध' ] जीव में निबद्ध होता है [ तदा तु] उस समय [ परिणामभावानां] उन श्रज्ञानादिक - परिणाम भावोंका [ हेतुः ] कारण [जीवः ] जी [भवति ] होता है ।
तात्पर्य - प्रकृति विपाक, कर्मासव व कर्मबन्ध, तथा जीवविभाव प्रपने अपने उपादान