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________________ कर्तृ कर्माधिकार २४५ एव भवेयुनं पुनर्जाम्बूनदकुंडलादयः । तथा जीवस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानु'विधायित्वादेव कार्याणां अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भाबादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा प्रप्यअज्ञानिन्, बहुविध, अपि, ज्ञानिन्, तु, ज्ञानमय, सर्व, भाव, तथा । मूलधातु-कुडि रक्षणे चुरादि, कटी गतौ (स्वार्थकः) जनी प्रादुर्भावे दिवादि, ज्ञा अवबोधने । पद विवरण-कनकमयात्, भावात्-पंचमी एकः । जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कुण्डलादयः, भावा:-प्रथमा बहु० । अयोमयकात्-पंचमी एक० ! भावात्-पं० एक० । यथा-अव्यय । जायंते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कटकादय:भावरूप होनेपर भी 'जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इस न्यायसे अज्ञानीके स्वयमेव प्रज्ञानमय भावसे प्रज्ञानको जातिको नहीं उल्लंघन करने वाले अनेक प्रकारके अज्ञानमय ही भाव होते हैं, ज्ञानमय भाव नहीं होते, और ज्ञानीके ज्ञानकी जातिको नहीं उल्लंघन करने वाले सब ज्ञानमय ही भाव होते हैं, अज्ञानमय नहीं होते। भावार्थ-जैसा कारण हो, वैसा ही कार्य होता है, इस न्यायसे जैसे लोहसे लोहमय वस्तुयें होती हैं, और सुवर्णसे सुवर्णमय आभूषण होते हैं उसी प्रकार अज्ञानीके अज्ञानसे प्रज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानीके ज्ञानसे ज्ञानमय ही भाव होते हैं । अज्ञानमयभाव तो क्रोधादिफ हैं और ज्ञानमयभाव क्षमा आदिक हैं । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टिके चारित्रमोहके उदयसे क्रोधादिक भी प्रवर्तते हैं तथापि उस ज्ञानी की उनमें प्रात्मबुद्धि नहीं है, वह इन्हें परके निमित्तसे हुई उपाधि मानता है, सो उसके वे क्रोधादि कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं, जानी भागामी ऐसा बंध नहीं करता कि जिससे संसारका भ्रमण बढ़े । और प्राप उद्यमी होकर उनरूप परिणमन भी नहीं करता है; उदयको जबरदस्तीसे परिणमता है, इसलिए वहाँ भी ज्ञानमें ही अपना स्वामित्व माननेसे उन क्रोधादिभावोंका भी अन्य ज्ञेयके समान ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुगलमें कहा गया था ज्ञानमय भावसे ज्ञानमय हो भाव होते और प्रज्ञानमय भावसे अज्ञानमय ही भाव होते हैं ! अब इस गाया युगलमें इसी तथ्यको दृष्टांत द्वारा समर्थित किया गया है । __तथ्यप्रकाश-१-जीव स्वयं परिणामस्वभाव है सो जीवको परिणमता तो रहना है ही । २-कार्य उपादान कारणका अनुविधान किया करते हैं याने जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है । ३- अज्ञानीके स्वयं अज्ञानमय भाव हैं सो अज्ञानमय कारणसे अज्ञानमय ही भाव होगा । ४-ज्ञानीक स्वयं ज्ञानमय भाव हैं सो ज्ञानमय कारणसे ज्ञानमय ही भाव होगा । सिद्धान्त-१- जिस काल सहजज्ञानस्वभावकी दृष्टि, प्रतीति, रुचि है उस काल यह मात्मा ज्ञानमय भाव वाला है। २- जिस काल रागादि प्रकृति विपाक प्रतिफलन में प्रात्मस्वकी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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