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________________ पूर्व रंग द्रव्याथिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायाथिकः, तदुभयमपि द्रव्यपर्याययोः पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थ । अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तु मात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । निक्षेपस्तु नाम, स्थापना, द्रव्यं, भावश्च । तत्रातद्गुरणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम । सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापन स्थापना। वर्तमानतत्पर्यायादन्यद्रव्यं, वर्तमानततार्यायो भावस्तच्चतुष्टयं स्वस्व लक्षणवलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थं । अथ च निविलक्षणस्वलक्षणकबहुवचन, जीवाजीवौ-प्रथमा द्विवचन, च-अव्यय, पुण्यपाप-प्रथमा एक०, च--अव्यय, आरू संयरनिर्जराःनाश करने वाले शुद्धनयके विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजपुंज प्रात्माके अनुभव में प्रानेपर नयोंकी लक्ष्मी उदयको प्राप्त नहीं होती, प्रमाण प्रस्तको प्राप्त हो जाता है और निक्षेपोंका समूह भी कहाँ चला जाता है यह हम नहीं जानते है इससे अधिक क्या कहे कि द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता अर्थात् यहाँ भेदको अत्यंत गौण कर कहा है कि शुद्ध एकाकार चिन्मात्रके अनुभव होनेपर प्रमाणन यादिक भेदकी तो बात क्या है, द्वैत ही प्रतिभासित नहीं है । ___ इस विषयमें विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांतीका मत है कि परमार्थमें (असलमें) तो अद्वैत का ही अनुभव हुअा, यही हमारा मत है, तुमने विशेष क्या कहा ? इसका उत्तर यह है कि तुम्हारे मतमें सर्वथा अद्वैत मानते हैं । यदि सर्वथा अद्वैत ही माना जाय तो बाह्य बस्तुका अभाव ही हो जाय, किन्तु ऐसा प्रभाव प्रत्यक्षविरुद्ध है। जिनशासनमें नयविवक्षा है, वह बाह्य वस्तुका लोप नहीं करती । शुद्ध अनुभवसे विकल्प नष्ट हो जाता है, तब आत्मा परमानन्दको प्राप्त हो जाता है, इसलिये अनुभव करानेको ऐसा कहा गया है। यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो प्रात्माका भी लोप हो जानेसे शून्यवादका प्रसंग आ सकता है । इसलिये मुखसे कहनेसे ही वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो जाती और वस्तुस्वरूपको यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव भी किया जाय वह भी मिथ्यारूप है। ऐसा होनेसे शून्यवादका प्रसंग प्राता है तब अाकाशके फूलके समान अनुभव असत् हो जायगा ।। अब शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं--'पात्मस्वभावं' इत्यादि । अर्थ-परभावसे भिन्न, परिपूर्ण, प्रादि-अन्तरहित, एक, संकल्पविकल्पजालशुन्य प्रात्मस्वभावको प्रकट करता हुआ अब शुद्धनय उदयरूप (उदीयमान) होता है । भावार्थशुद्धनय प्रात्माको परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विभाव सब तरहके परभावोंसे भिन्न प्रकट करता है । शुद्धनय समस्त रूपसे पूर्ण सब लोकालोकके जानने वाले स्वभावको प्रकट करता है, क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे है, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं । शुद्धनय प्रादिग्रंत रहित (कुछ प्रादि लेकर किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ और न कभी किसोसे
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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