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________________ ૪૨ समयसार वस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । श्रथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जोव एव प्रद्योतते ||१३|| उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्यो याति निक्षेपचक्रं । किमपरमभिदध्मो घानि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ ६ ॥ आत्मस्वभावं परभावभिन्न मापूर्ण माद्यंत विमुक्तमेकम् | विलीन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १०॥ प्रथमा विभक्ति बहुवचन, बन्धः - प्रथमा एक०, मोक्षः- प्रथमा एक०, च-अव्यय, सम्यक्त्वम् प्रथमा विभक्ति एकवचन ||१३|| नष्ट होगा ) ऐसे पारिणामिक भावको प्रकट करता है। शुद्धनय एक, ( द्वैत भावोंसे रहित ) एकाकार तथा जिसमें समस्त संकल्प-विकल्पों के समूहका विलय ( नाश) हो गया है, ऐसे श्रात्मस्वभावको प्रकट करता है । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्यों में अपनी कल्पना करनेको संकल्प और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञान में भेदोंकी प्रतीतिको विकल्प कहते हैं । प्रसंग विवरण - अनन्तर पूर्वं गाथा में शुद्धनयका आदेश दिया गया है उसी शुद्धनय के प्रयोगको इस गाथा में झांकी है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) नमतत्त्व श्रादिका विविध प्रकाशन तीर्थप्रवृत्तिके लिये है । ( २ ) एकत्वप्रकाशक भूतार्थन यसे नवतत्वोंके मूल स्रोत में विलीन हो जानेसे शुद्ध ज्ञायकस्वभाव श्रात्मतत्वकी अनुभूति होती है । (३) जीव और कर्मविषयक अस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्षमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है, इसी कारण भूतार्थनयसे निरखने पर ये तस्वभेद कुछ भी नहीं रहते । ( ४ ) वस्तुके प्रधिगम के उपायभूत प्रमाण नय निक्षेप उनके भेद प्रभेद तीर्थप्रवृत्तिके लिये हैं । (५) शुद्ध वस्तुमात्र जीवस्वभावका अनुभव होनेपर प्रमाण नय निक्षेप श्रादि विकल्प कुछ भी नहीं रहते । सिद्धान्त - ( १ ) भूतार्थका श्राश्रय सम्यक्त्वका कारण है । (२) व्यवहारका अनुसरण तीर्थप्रवृत्तिका कारण है । दृष्टि - १ - परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय ( ३० ) । २ - भेदकल्पना सापेक्ष श्रशुद्ध द्रव्याथिक, भेदकानासापेक्ष अशुद्ध द्वध्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार (२६, ६२ ) । प्रयोग-व्यवहारनय व निश्चयनयसे श्रात्माके गुरण पर्याय तत्त्वोंको जानकर उनका मूल स्रोत जो सहज चैतन्य है उसपर दृष्टि देकर परमविश्राम पायें ॥१३॥ ra fafone शुद्धनकी गाथासूत्रसे कहते हैं-- (यः) जो नय (आत्मानं ) श्रात्माको (अस्पृष्टं ) बंधरहित भोर परके स्पर्शरहित (अनन्यं) अन्यत्वरहित ( नियतं ) चलाचलता
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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