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समयसार
प्यो, विडंब्यते योषितो, ध्वंस्यंते बंधास्तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादी भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते ॥१॥ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० त्रिया, तस्य-षष्ठी एकवचन, भावस्य-षष्ठी एक०, कमत्व-प्र० ए० अथवा अव्यय क्रियाविशेषण यथा स्यात्तथा, परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया, तस्मिन्सप्तमी एक०, स्वयं-अव्यय, पद्गलं--प्र० ए०, द्रव्यम्-प्रथमा एकवचन ।। ६१ ॥ रूप परिणमन उपाधिसम्पर्क बिना सम्भव नहीं है।
सिद्धान्त---(१) द्रध्यप्रत्ययके सन्निधानमें प्रात्मा अपने विकारभावसे परिणमता है । (२) मारमाके विकारभावके सन्निधानमें पुद्गलकार्माणद्रव्य अपने कर्मत्वरूप विकारसे परिणमता है । (३) परिणमन सबका अपने स्वयंमें स्वयंके लिये स्वयंसे स्वयंको परिणतिसे होता है।
दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ३- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३), कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३)।
प्रयोग-जीव और कमका प्रोपाधिक परिणमन होनेसे परभावपना जानकर उससे मुक्त होनेकी सुगमतापर उत्साह बढ़ाना और उनसे मुक्त होनेके एकमात्र साधनभूत सहज चैतन्यस्वरूपमें रत होकर तुप्त होना ।।१।
अज्ञानसे ही कर्म होता है ऐसा अब तात्पर्य कहते हैं--[प्रज्ञानमयः] अज्ञानमय [सः जीवः] वह जीव [परं] परको [आत्मानं कुर्वन] प्रापरूप करता है [च] और [प्रात्मानं प्रपि] अपनेको [परं] पररूप [कुर्यन] करता हुमा [कर्मणां] कोका [कारकः] कर्ता [भवति] होता है।
तात्पर्य-स्व व परमें एकत्यको अवस्था रखने वाला अज्ञानी है और कर्मका कर्ता है।
टीकार्य--यह प्रात्मा प्रज्ञानसे परके और अपने विशेषका भेदज्ञान न होनेपर अन्य को तो अपने करता है, और अपनेको अन्यके करता है, इस प्रकार स्वयं अज्ञानी हुमा कर्मोका कर्ता होता है । जैसे शीत उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ जो पुद्गल परिणामकी शीत उष्ण अवस्था है वह पुद्गलसे भिन्न होनेसे प्रात्मासे नित्य ही अत्यंत भिन्न है, वैसे उस प्रकारका अनुभच करानेमें समर्थ जो रागद्वेष सुखदुःखादिरूप पुद्गल परिणामकी अवस्था वह पुद्गलको प्रभिन्नताके कारण प्रात्मासे नित्य हो अत्यन्त भिन्न है। तथा उस पौगलिककर्मविपाकके