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________________ कतृकर्माधिकार १६१ अज्ञानावेव कर्मप्रभवतीति तात्पर्यमाह-- परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करितो सो। अण्णाणामो जीवो कम्माणं कारगो होदि ॥२॥ परको अपना करता, अपनेको भि पररूप यह करता। अज्ञानमयी प्रात्मा, सो कर्ता होय फर्मोका ॥६२६॥ परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः । अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ।।२।। अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयोभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादनसम याः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया: शोतोरणानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्त. निमित्तं तथाविधानुभवस्य धात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्याज्ञानात्परस्परवि नामसंज्ञ- पर, अप्प, कुम्वन्त, अप्प, पि, य, करिन्त, त, अण्णाणमय, जीब. कम्म कारग। धातुसंत---कृत्व करणे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशम्ब-पर, आत्मन्, अपि, च, पर, तत, अज्ञानमय, जीव, कर्मन, कारक । मुलधात-अत सातत्यगमने, उकृत्र करणे, जीव प्राणधारणे, भ्वादि, सत्तायां। पदविवरण-पर-द्वितीया एक० । आत्मानं-द्वितीया एक० । कुर्वन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । आत्मानंनिमित्तसे हुए उस प्रकारके रागद्वेषादिकके अनुभव का आत्मासे अभिन्नताके कारण पगलसे नित्य ही अत्यन्त भिन्नता है, तो भी उस पुद्गल परिणामरूप रागद्वेषादिकका और उसके अनुभवका प्रज्ञानसे परस्पर भेदशान न होनेसे एकत्वके निश्चयसे यद्यपि जिस प्रकार शीत उष्णरूपसे प्रात्मा परिणमन करने में असमर्थ है, उसी प्रकार रागद्वेष सुख-दुःखादिरूप भी अपने पाप परिणमन करनेमें असमर्थ है तो भी रागद्वेषादिक पुद्गल परिणामको अवस्थाको उसके अनुभत्रका निमित्तमात्र होनेसे अज्ञानस्वरूप रागद्वेषादिरूप परिणमन करता हुना अपने ज्ञान की प्रज्ञानताको प्रकट करता पाप अज्ञानी हुप्रा 'यह मैं रागी हूं' इत्यादि विधानकर ज्ञानविरुद्ध रागादिककर्मका कर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-रागद्वेष सुख-दुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है, अतः यह उदयविपाक पद्गलकर्मसे अभिन्न है, प्रात्मासे प्रत्यन्त भिन्न है। प्रात्माको अज्ञानसे इसका भेदज्ञान नहीं है, इसलिए ऐसा जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है, क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छता ऐसी ही है कि रागद्वेषादिका विपाक (स्वाद) शीत उष्णकी तरह ज्ञान में प्रतिबिम्बित होता है तब ऐसा मालूम होता है कि मानो ये ज्ञान ही हैं। इस कारण ऐसे अज्ञानसे इस अज्ञानी जीवके इनका कर्तृत्व भी पाया। क्योंकि इसके ऐसी मान्यता हुई कि मैं रागी हूं, द्वेषी हूं,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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