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________________ १६२ समयसार शेषानिर्शाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णारूपेणवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे. णाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणो (ज्ञानविरुद्धस्य) कर्ता प्रतिभाति ॥२॥ द्वितीया एक० । अपि-अव्यय । च-अव्यय । परं-द्वितीया एक० । कुर्वन्-प्रथमा एक० कृदन्त । सः-प्रथमा एक । अज्ञानमयः-प्रथमा एक० । जीवः--प्रथमा एक ० कर्ता । कर्मणां-षष्ठी बहु० । कारक:-प्रथमा ए। भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥१२॥ क्रोधी हूं, मानी हूं इत्यादि । इस प्रकार वह परका कर्ता होता है । प्रसंगविवरण ----यजन्तरपूर्व गाथामें जलाया था कि प्रात्माके जोवपरिणाम विकार कर्मका कर्तृत्व होनेपर पुद्गलकार्मा द्रव्य स्वयं कर्मरूपसे परिणमता है। इसी विषयका मौलिक तात्पर्य यह है कि प्रज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है यही इस गायामें स्पष्ट किया है। तथ्यप्रकाश-१--परको मात्मरूप व आत्माको पररूप मानना अज्ञान है । २-अज्ञान से प्रात्मा मैं रागो द्वेषी हूं आदि विधिसे भावकमका कर्ता है । ३- रागद्वेषप्रकृतिरूप पुद्गलपरिणाम प्रात्मासे अत्यन्त भिन्न है । ४- रागद्वेषप्रकृतिरूप पुदगलपरिणाम पुद्गलसे अभिन्न है । ५- रागद्वेषप्रकृतिविपाकनिमित्तक रागद्वेषभावानुभव पुद्गलसे अत्यन्त भिन्न है । ६रागद्वेषप्रकृतिविपाकनिमित्तक रागद्वेषभावानुभव उस समय जीवसे अभिन्न है। ७- जीव प्रज्ञानात्मक रागद्वेषत्रिपाकरूपसे परिणम नहीं सकता, किन्तु उसरूपसे अपना परिणमना मानना, यह अज्ञानमय भाव है। सिद्धान्त- १- परको प्रात्मा माननेकी मान्यताका कर्तृत्व प्रज्ञानी जीवमें है। २- रागद्वेषप्रकृतिविपाकोदय होनेपर जीवमें रागद्वेषभावानुभवन होता है। दृष्टि- १- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३), अशुद्ध निश्चयनय (४७)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग - विपरीतमान्यतासे ही विकारोंका प्रादुर्भाव जानकर यथार्थ ज्ञानबलसे विप. रीत मान्यता समाप्त करके अपनेमें कृतार्थताका प्रभ्युदय करना ॥२॥ अब कहते हैं कि ज्ञानसे कम नहीं उत्पन्न होता-~[जीवः] जीव [प्रात्मानं] अपनेको [परं] पररूप [प्रकुर्वन्] नहीं करता हुमा [च] और [परं] परको [प्रास्मानं अपि] अपने रूप भी [मकुर्वन्] नहीं करता हुआ [सः] वह [ज्ञानमयः] ज्ञानमय जीवः] जीव [कर्मरणां] कर्मों का [प्रकारक:] करने वाला नहीं [भवति] है। तात्पर्य-कर्मविपाकको प्रापा न माननेवाला ज्ञानी जीव कर्मका कर्ता नहीं होता है । टीकार्थ- यह जीव ज्ञानसे परका और अपना परस्पर भेदशान होनेसे परको तो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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