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________________ कर्तृकर्माधिकार ज्ञानात न कर्म प्रभवतीत्याह--- परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमश्रो जीवो कम्माणमकारयो होदि ॥१३॥ परको निज नहिं करता, अपनेको म पररूप करता यह । संज्ञानमयी प्रात्मा, कर्ता होता न कोका ६३॥ परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् । स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारका भवति ॥३॥ अयं किल ज्ञानादात्मा परामनोः परस्परविशेषनिनि सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादनसमथायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः प्रशीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्त नामसंज्ञ-पर, अप्प, अकुठवंत, अप्प, पि, य, पर, अकुञ्छत, त, णाणमा, जीव, कम्म, अकार। धातुसंज्ञ-कुव्व करणे, हो ससायां। प्रकृतिशम्द-पर, आत्मन्, आत्मन्, अपि, च, पर, तत्, ज्ञानमय, जीव, कर्मन्, अकारक । मूलधातु-अत सातत्यगमने, डुकृञ् करणे, ज्ञा अवबोधने, जीव प्राणधारणे, भू प्रात्मरूप नहीं करता हुआ और अपनेको पररूप नहीं करता हुग्रा पाप ज्ञानी हुअा कौका प्रकर्ता प्रतिभासित होता है । उसोको स्पष्ट करते हैं---जैसे शीत उरण अनुभव कराने में समर्थ शीत उष्णस्वरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे प्रभिन्न होनेके कारण प्रात्मासे नित्य ही अत्यंत भिन्न है, उसी प्रकार रागद्वेष सुख दुःखादिरूप अनुभव कराने में समर्थ राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामको अवस्था पुद्गलसे भिन्न होनेके कारण प्रात्मासे नित्य हो, प्रत्यंत भिन्न है, तथा ऐसी पुद्गलविपाक अवस्थाके मिमित्तसे हुमा उस प्रकारका अनुभव प्रातमासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे अत्यंत सदा ही भिन्न है। ऐसी दोनोंकी भिन्नताके ज्ञानसे परस्पर विशेषका भेदज्ञान होनेपर नानात्वके विवेकसे, जैसे शीत उष्ण रूप प्रात्मा स्वयं परिणमनमें असमर्थ है, उसी प्रकार राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप भी स्वयं परिणमन करने में असमर्थ है । इस प्रकार प्रशानस्वरूप जो राग-द्वेष-सुख-दुःखादिक उन रूपसे न परिगमन करता, ज्ञानके ज्ञानत्वको प्रकट करता, ज्ञानमय हुप्रा ज्ञानी ऐसा जानता है कि "यह मैं रागद्वेषादिक को जानता ही हूं और ये पुद्गल रागरूप होते हैं । इत्यादि विधानसे सर्व ही ज्ञानविरुद्ध रागाविककर्मका अकर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-~-जब ज्ञानी राग-द्वेष सुख-दुःख अवस्थाको ज्ञानसे भिन्न जानता है कि 'जैसे पुद्गलकी शीत उष्ण अवस्था तद्विषयक ज्ञानसे भिन्न है, उसी प्रकार रागद्वेषादिक भी तद्विष. यक ज्ञानसे भिन्न हैं ऐसा भेदज्ञान हो तब अपनेको ज्ञाता जाने व रागादिको पुद्गलको
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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