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________________ समयसार निमित्तनशाविधानुभवस्थ चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवास्यंतभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परधिशेषनिर्माने सति मानास्वविवेकाच्छोतोष्णरूपेणेवारमना परिमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञामात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य शानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोहं जानाम्येव, रज्यते तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञान विरुद्धस्याको प्रतिभाति ॥३॥ ससायां । पदविवरण-पर-द्वितीया एकवचम । मात्मानं-द्वितीया एकवचन । अकुर्वन्-अ-कुर्वन्-प्रषमा एक० कृदंत । सः-प्रथमा एकवचन । शासमय:-प्रथमा एक०। जीव:-प्रथमा एक कर्ता । कर्मणा-षष्ठी बहु । अकारक:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ॥३॥ जाने । ऐसा होनेपर इनका कर्ता मात्मा नही होता जाता ही रहता है, क्योंकि ज्ञानी जानता है कि जैसे शीत-उष्ण अवस्था पुद्गलकी है वह मात्माकी नहीं, ऐसे ही रागादि अनुभाग दशा पुद्गलकमंकी है वह प्रात्माकी नहीं है, प्रात्माकी दशा तो तद्विषयक अनुभव है जो कि पुत्गलसे बिल्कुल जुदा है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि प्रज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है। अब उसीके प्रतिपक्षमें कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान होनेसे कर्मका प्रभव नहीं होता है। तव्यप्रकारा--१- स्वपरका यथार्थ ज्ञान होनेसे प्रात्मा परको प्रापा नहीं मानता तथा प्रात्माको पररूप नहीं मानता है यही मूसमें ज्ञानमय भाव है। २.- प्रात्मा स्वयं रागद्वेषादि विपाकरूप परिणम तो सकता ही नहीं था प्रब भेदज्ञान होनेसे प्रज्ञानात्मक रागद्वेषादिरूपसे रंच भी नहीं परिणमता । --गानीके यह स्पष्ट निर्णय है कि यह मैं तो मात्र जानता ही हूं, कर्मप्रतिफलन हो उसे भी मात्र जानता हूं, मूलतः रागस्प तो पुद्गल हैं । ४-मैं मात्र जानन भावका ही करने वाला हूं इस हा निर्णयके कारण ज्ञानी समस्त रागादि परभावोंका प्रकर्ता है। सिद्धान्त-1-प्रात्मा स्वद्रव्य क्षेत्रकालभाव से है। .. प्रात्मा पुद्गलकर्मादि समरत परपदापोंके द्रव्य क्षेत्र-काल-भावसे नहीं है । ३- स्वपरके यथार्थ ज्ञान और ज्ञानभायना करने घाला ज्ञानी मशानमय कर्मका प्रकर्ता है। हि-१- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२९)। ३- शुदभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग---परको पर निजको निज जानकर ज्ञान मात्र अन्तस्तत्त्वमें रत होकर कृतकृत्य होनेका पौरुष करमा ॥६॥ पब कहते हैं कि कैसे प्रशानसे कम उत्पन्न होता है ? [एषः] यह [विविधः] तीन
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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