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________________ १६ कर्तृकर्माधिकार जयमशानात्कर्म प्रभवतीति चेत् तिविहो गसुवोगो अप्पवियप्पं करेइ कोहोहं। कत्ता तस्सुवोगस्स होइ सो अत्तभावस्स ॥४॥ उपयोग त्रिविध यह हो, क्रोष हूँ यो स्वविकल्प करता है। सो उस प्रात्ममावमय, होता उपयोगका कर्ता ॥१४॥ त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोहं । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥४॥ एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिध्यादर्शनासानाविरतिरूपस्त्रिविषः सविकारश्चैतन्य - परिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या व समस्तं मेदमपह नुत्य भाव्यभावकभावापन्नयोश्चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोयमारमा क्रोधोहमिति भ्रांत्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सवि. नामसंमतिविह, एत, उवओग, अप्पवियप्प, कोह, अम्ह, कत्तार, त, उबओग, त, अत्तभाव । धातुसंज्ञ--उव-जुंज योगे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशब-विविध, एतत्, उपयोग आत्मविकल्प, क्रोध, अस्मद्, कहूं , तत्, उपयोग, तत्, आत्मभाव । मूलपातु--विध विधाने, उप-युजिर योगे, डुकृश् प्रकारका [उपयोगः] उपयोग [मात्मविकल्प] अपनेों तिकरूप [करोति करता है कि [अहं क्रोधः] मैं क्रोधस्वरूप हूं, [सः] सो वह [तस्य] उस [उपयोगस्य] उपयोगरूप [भारममावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता [भवति होता है। तात्पर्य-प्रज्ञानी जीव क्रोधादिस्वरूप अपनेको मानता है, अतः वह क्रोधादिस्प अपने उपयोगका कर्ता होता है। टीकार्थ-बास्तवमें यह सामान्यतः मझानरूप मिथ्यादर्शन प्रशान और प्रविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्य परिणाम पर और प्रात्माको प्रभेदश्रद्धासे, अभेदज्ञानसे और प्रभेदरूप रतिसे सब भेदको प्रोझल कर भाव्यभावकभाको प्राप्त हुए चेतन प्रवेतन दोनोंको समान अनुभव करनेसे 'मैं क्रोध हूं' ऐसा प्रसद्भूत प्रात्मविकल्प उत्पन्न करता है याने वह क्रोधको ही अपना जानता है। इस कारण यह प्रास्मा 'मैं क्रोध हूं' ऐसी भ्रांतिसे विकार सहित चैतन्य परिणामसे परिणमन करता हुमा, उस विकारसहित चतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है । इसी प्रकार कोष पदके परिवर्तनसे मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, राय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन, इन सोलह सूत्रों याख्यान करना चाहिये । और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार लेना चाहिये । भावार्थ--मिध्यादर्शन, अशान मौर अविरति ऐसे विविध विकारसहित चैतन्यपरिणाम अपना पौर परका भेद न जानकर मैं क्रोधी हूं, मैं मानी हूं इत्यादि मानता है ऐसा
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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