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समयसार कारचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायनोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ९४|| करणे, क्रुम क्रोधे, भू सत्तायां । पदविवरण–त्रिविधः-प्रथमा एकः । एषः प्रथमा एक० । उपयोग:-प्रथमा एकवचन ! आत्मविकल्प-द्वितीया एकः। करोति दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन। क्रोधः-प्रथमा एक० । अहं-पथमा एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । तस्य-षष्ठी एक० । उपयोगस्य-षष्ठी एक० । भवतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० । आत्मभावस्य-षष्ठी एकवचन ।।१४।।
माननेसे अपने विकार सहित चैतन्य परिणामका यह अज्ञानी जीव कर्ता होता है और वह अशानभाव कम होता है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाधामें बताया गया था कि अज्ञानसे कर्म (भावकर्म) का प्रभव होता है और ज्ञानसे कर्मका प्रभव नहीं होता । सो अब यहां यह पूछा गया कि प्रज्ञान से कर्म कैसे उत्पन्न होते हैं इसीके समाधान में यह गाथा पाई है ।
तथ्यप्रकाश--(१) सर्वज्ञता न होने तक जो भी सोपाधि सविकार चैतन्यपरिणाम है वह सब सामान्यसे अज्ञानरूप है । (२) सम्यक्त्व न होने तक मिथ्याज्ञानरूप प्रज्ञान है । (३) मिथ्याज्ञानी याने प्रबल अज्ञानी अज्ञानसे भाव्य अपनेको और भावक कर्मविपाकरस क्रोधादि को एक साधाररूपसे अनुभव करके 'मैं क्रोध प्रादि हूं" ऐसा विकल्प बनाता है सो वह सविकार चैतन्यपरिणामरूप भावकर्मका कर्ता होता है ।
सिद्धान्त-(१) जीव अज्ञानसे अज्ञानमय भावकर्मका कर्ता है । (२) अज्ञानदशामें भी पर्याय एक प्रवक्तव्य है उसका व्यवहारसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रबिरतिरूप तीन प्रकारों में वर्णन होता है।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- सभेद प्रशुद्धनिश्चयनय (४७), उपचरित अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७५)।
प्रयोग–अपने प्रविकार चित्स्वरूप और कर्मरसमें प्रभेदबुद्धिसे ही सर्वसंकट होना जानकर अविकार चित्स्वरूपमें हो पात्मत्व स्वीकार कर इस अन्तःस्वरूप में मग्न होनेका पुरुषार्थ करना ॥१४॥
अज्ञानी धर्मद्रव्य प्रादि अन्य द्रव्यों में भी कैसा प्रात्मविकल्प करता है:-[एष] यह [त्रिविधः] तीन प्रकारका [उपयोगः] - उपयोग [धर्मादिकं] धर्म प्रादिक द्रव्यरूप [मात्मर्षि कल्पं] अात्मविकल्प [करोति] करता है याने उनको अपने जानता है [सः] सो बह [सस्य] उस [उपयोगस्य] उपयोगरूप [प्रात्मभावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता [भवति होता है।