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कर्माधिकार
तिविहों सुवयोगो अपविययं करेदि धम्माई | कत्ता तस्सुवोगस्स होदि सो त्तभावस्स ||६||
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उपयोग विविध ग्रह हो, धर्मादिक हूँ विकल्प यों करता । सो उस आत्मभावमय होता उपयोगका कर्ता ॥ ६५ ॥ त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकं । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥६५॥ एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूप स्त्रिविधः सविकारश्चेतन्यपरिणामः परस्परम विशेष दर्शनेना विशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या व समस्तं भेदमपहनुत्य यज्ञायकभावापन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्ग लोऽहं जीवांतरममित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोऽयमात्म धर्मोऽहमधर्मोहमाकाशमहं
नामसंज्ञ - तिविह, एत, उवओग, अप्पवियप्प, धम्मादि, कतार, त, अत्तभाव । धातुसंज्ञ उबउज्ज योगे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द- - त्रिविध, एतत्, उपयोग, आत्मविकल्प, धर्मादिक, कर्तृ, तत्, उपयोग, तत्, आत्मभाव । मूलधातु-- धृत्र धारणे भ्वादि, उप-युजिर् योगे । पदविवरण – त्रिविध:प्रथमा एक० । एषः - प्र० ए० । उपयोग:- प्र० ए० । आत्मविकल्पं द्वितीया एकवचन । करोति-वर्तमान
टीकार्थ - सामान्यसे मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रविरतिरूप तीन प्रकारका प्रज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणाम ही परके और अपने परस्पर अविशेष दर्शन से, अविशेष ज्ञानसे और श्रविशेष चारित्र से समस्त भेदोंको लोप करके शेयज्ञायकभावको प्राप्त धर्मादि द्रव्योंके अपने और उनके एक समान आधारके अनुभव करनेसे ऐसा मानता है कि मैं धर्मद्रव्य हूं, मैं प्रधर्मद्रव्य हूँ, मैं श्राकाशद्रव्य हूं, मैं कालद्रव्य हूं, मैं पुद्गलद्रव्य हूं, मैं ग्रन्य जो भी हूं, ऐसे भ्रमसे उपाधिसहित अपने चैतन्यपरिणाम से परिगमन करता हुआ उस उपाधिसहित चैतन्यपरिणमनरूप अपने भावका कर्ता होता है । इस कारण यह निर्णय रहा कि कर्तृत्वका मूल प्रज्ञान है । भावार्थ - यह आत्मा अज्ञानसे धर्मादि द्रव्य में भी भ्रापा मानता है । अतः उस अपने अज्ञानरूप चैतन्यपरिणामका स्वयं ही कर्ता होता है प्रश्न - पुद्गल और अन्य जीव सो प्रवृत्ति में दीखते हैं, उनमें तो अज्ञानसे प्रापा मानना ठीक है, परन्तु धर्मद्रव्य, श्रधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, कालद्रव्य तो देखने में भो नहीं पाते, उनमें भाषा मानना कैसे कहा ? उत्तर-यह धर्मास्तिकाय है ऐसा ज्ञानविकल्प भी उपचारसे धर्मास्तिकाय है सो इस विकल्पके करनेके समय यज्ञानी शुद्धात्मस्वरूपको भूल जाता है, सो उस विकल्पके करनेपर मैं धर्मास्तिकाय हूं ऐसा एकाकार होना यही धर्मद्रव्यको अपना करना कहलाता है। ऐसा ही अधर्मादिद्रव्यमें भी
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समझना ।
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्वं गाथामें भाव्यभावकविधिसे वरको प्रातमत्व स्वीकारने