SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० समयसार कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवांतरमहमिति भ्रांत्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन तस्य सोपाधिचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानं ॥६५॥ लट् अन्य पुरुष एक । धर्मादिक-द्वितीया एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । तस्य-षष्ठी एकः । उपयोगस्यषष्ठी एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । सः-प्र० ए० । आत्मभावस्य-पप्ठी एकवचन ॥६५॥ वाले अज्ञानसे भावकर्मप्रभवकी बात बताई थी, अब ज्ञेयज्ञायकविधिसे परको प्रात्मत्व स्वी. कारने वाले प्रज्ञानसे भावकर्मप्रभवकी बात इस गाथामें कही गई । समप्रकाश - (१) मिथ्याज्ञानरूप अज्ञानसे जीव ज्ञेय परपदार्थको व शायक अपने प्रापको समान आधाररूपसे अनुभव करके परज्ञेयाकारमें यह मैं हूं इस विकल्पको करता है। (२) अज्ञानसे यह जीव परद्रव्य ज्ञानविकल्पको स्वयं प्रापा मानकर प्राशनी सोपाधि चैतन्यपरिणामरूप प्रात्मभावका कर्ता होता है । _सिद्धान्त-(१) अज्ञानी परपरिच्छित्तिविकल्पमें स्वत्व अनुभव कर सोपाधिचैतन्यपरिणामरूप भावकर्मका कर्ता होता है । (२) मस्तिकाचादि-पारच्छितिरूप विकल्पमें धर्मास्तिकायादिका आरोप होता है । दृष्टि-- १- अशुद्धनिश्चयनय (४५)। २- एकजातिपर्याये अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१२१)। प्रयोग- झेयोंसे पृथक् शेयाकारपरिच्छित्तिरूप विकल्पसे विविक्त ज्ञानमय एक ज्ञायक भावमें दृष्टि रखकर ज्ञेयज्ञायकसकरता दूर कर परमविश्राम अनुभवना चाहिये ।।६५|| यहाँ कर्तृत्वका मूल कारण प्रज्ञान है, इसीके समर्थन में कहते हैं---[एवं ] ऐसे पूर्वकथित रीतिसे [मंदबुद्धिः] अज्ञानी [प्रशानमान] प्रज्ञान भावसे [पराणि द्रव्याणि] परद्रव्योंको [प्रात्मानं] अपनेरूप [करोति] करता है [अपि च] और [प्रात्मानं] अपनेको परं करोति] पररूप करता है। तात्पर्य यह मंदबुद्धि मिथ्यादृष्टि जीव परको प्रारमरूप व आत्माको पररूप प्रज्ञानके कारण मानता है। टीकार्थ-यह प्रात्मा मैं क्रोध हूं, मैं धर्मद्रव्य हूं इत्यादि पूर्वोक्त प्रकारसे परद्रव्योंको प्रात्मरूप करता है और अपनेको परद्रव्यरूप करता है, ऐसा यह प्रात्मा यद्यपि समस्त वस्तुके सम्बन्धसे रहित अमर्यादरूप शुद्ध चैतन्य धातुमय है तो भी अज्ञानसे सविकार सोपाधिरूप किये अपने चैतन्य परिणामरूपसे उस प्रकारका अपने परिणामका कर्ता प्रतिभासित होता है । इस प्रकार प्रात्माके भूताविष्ट पुरुषकी भांति तथा ध्यानाविष्ट पुरुषकी भांति कर्तापनेका मूल प्रज्ञान प्रतिष्ठित हुअा। यही अब स्पष्ट करते हैं-भूताविष्ट पुरुष (अपने शरीरमें भूतप्रवेश किया
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy