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________________ দক্ষদাঁধিকাৰ १६८ एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणादि मंदबुद्धीयो। अप्पाणं अवि य परं करेइ अण्णाणभावेण ॥६६॥ __ यों मंदबुद्धि करता, परद्रव्योंको हि प्रारमा अपना ।। अपनेको भी परमय, करता प्रशानमावोंसे ॥७७॥ एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु । आत्मानमपि च परं करोति अशानभावेन 1॥६६॥ यत्तिल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याग्यात्मीकरोत्यात्मानमपि पर. द्रव्यीकरोत्यवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसंबंधविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोप्यज्ञानादेव सविकारसोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्थ कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्यानाविष्टस्येव प्रतिष्ठितं करतगूलमज्ञा दयाह- जानु तानियोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकीकुर्वनमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टंभनिर्भरभयंकरारंभगंभीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्थ - नामसंश-एवं, पर, दव, अप्पय, मंदबुद्धि, अप्प, अवि, य, पर, अण्णाणभाव। पातुसंश-कुण करणे, कर करणे । प्रकृतिशब्द-एवं, पर, द्रव्य, आत्मन्, मंदबुद्धि, आत्मन्, अपि, च, पर, अज्ञानभाव। दुमा) अज्ञान से भूतको और अपने को एकरूप करता हुप्रा जैसी मनुष्यके योग्य चेष्टा न हो, वैसी चेष्टाके आलम्बन रूप अत्यन्त भयकारी प्रारंभसे भरा अमानुष व्यवहारसे उस प्रकार चेष्टारूप भावका कर्ता प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अज्ञानसे ही पर और प्रात्माको भाव्य-भावकरूप एक करता हुमा निर्विकार अनुभूतिमात्र भावकके अयोग्य अनेक प्रकार भाव्यरूप क्रोधादि विकारसे मिले चैतन्यके विकार सहित परिणामसे उस प्रकारके भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है । तथा जैसे किसी अपरोक्षक प्राचार्यके उपदेशसे भैसेका ध्यान करने वाला कोई भोला पुरुष प्रज्ञानसे भैसेको और अपनेको एकरूप करता हुआ अपनेमें गगनस्पर्शी सोंग वाले महान् भैंसापनेके अध्याससे मनुष्यके योग्य छोटी कुटोके द्वारसे निकलनेसे च्युत रहा उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। उसी प्रकार यह प्रात्मा भी मज्ञानखे ज्ञेयज्ञायकरूप पर और प्रात्माको एकरूप करता हुअा अात्मामें परद्रव्यके अध्याससे (निश्चयसे) मनके विषयरूप दिये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवद्रव्य शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होनेसे तथा इंद्रियोंके विषयरूप किये गये रूपी पदार्थोके द्वारा अपना केवल (एक) ज्ञान ढका गया होनेसे तथा मृतक शरीरमें परम अमृतरूप विज्ञानघन प्रात्माके मूछित होने से उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। ___ भावार्थ--यह आत्मा अज्ञानसे अचेतनकर्मरूप भावकके क्रोधादि भावको चेतनभावक के साथ याने अपने से एकरूप मानता है और धर्मादिद्रव्य ज्ञेयरूप हैं, उनको भी शायकके साय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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