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समयसारं भावस्य का प्रतिभाति । तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावको परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्रभावकानुमितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरंवितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । यथा चापरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्म. हिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्र कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिमूलधातु-त्रु गती द्रवणे, डुकुन्न करणे, बुध अवगमने भ्वादि व दिवादि। पदविवरण-एवं-अव्यय । पराणि-द्वितीया बहुवचन । व्याणि-द्वितीया बहुवचन । आत्मानं-द्वि० एक०। करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । मंदबुद्धिः-प्रथमा एकः । तु-अव्यय । आत्मान-द्वि० एक० । अपि अध्यय । च-अव्यय । यांने अपने से एकरूप मानता है । अतः वह सांवकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है । यहाँ क्रोधादिकसे एक माननेका तो भूताविष्ट पुरुषका दृष्टांत है और धर्मादि अन्य द्रव्यसे एकता माननेका ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टांत है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुग्ममें यह बताया गया था कि अज्ञानसे जीव भाव्यभावकविषयक अभेदबुद्धिसे भावकर्मका कर्ता है और परशेयज्ञायकविषयक अभेदबुद्धिसे सावकर्मका कर्ता है । इस विवरणके बाद इस गाथामें निर्णय पुष्ट किया गया है कि कर्तृत्वका मूल अज्ञान ही है।
तथ्यप्रकाश-१ असे भूताविष्ट पुरुष भूत और अपनेको एक करता हुआ अमानुषीय नटपट चेष्टा करता है इसी प्रकार कर्मविपाकाक्रान्त जीव कमरस और अपनेको एक करता हुमा स्वभावानुचित क्रोधादिविकार विकल्प करता है । २-जैसे महिषध्यानाविष्ट पुरुष विकल्प में भैसा और अपनेको एक करता हुआ महाविषाणपनेके अध्याससे कैसे मनुष्योचित छोटे द्वार से निकलू ऐसा विकल्पविमूढ होकर अस द्विकल्प करता है इसी प्रकार परज्ञेयध्यानाविष्ट जीव परज्ञेय व ज्ञायकरूप अपनेको एक करता हुआ परद्रव्यके अध्याससे मूच्छित होकर पररूपातमविकल्पविमूढ होकर प्रसद्विकल्प करता है ।
सिद्धान्त - १- परभावोंको व परद्रव्योंको प्रात्मरूप मानना मिथ्या है, केवल किसी सम्पर्कके कारण परद्रव्यों को प्रात्मरूप मानना मिथ्या है, केवल किसी सम्पर्कके कारण परद्रव्योंको ५ परभावोंको आत्मरूप कहना रूढ़ हो गया है । २- वस्तुत: आत्मा परद्रव्यों द परभावोसे विविक्त केबल चेतनामात्र है।
दृष्टि -१- उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार (१०४), उपाधिज उपचरित स्व. स्वभावव्यवहार (१०३), एकजातिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१०६), स्वजातिद्रव्ये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१०६अ)। २- परमशुद्धनिश्चयनय (४४), शुद्धनय (४६) ।