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कर्तृकर्माधिकारः अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुगलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह
जं कुणइ भावमादा कत्ता सोहोदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तह्मि सयं पुग्गलं दव्वं ॥१॥
जीव जो भाव करता, होता उस मायका वही कर्ता ।
उसके होते पुद्गल, स्वयं कर्मरूप परिणमता ॥१॥ यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य । कर्मस्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलद्रव्यं ||१||
प्रात्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्सायकवत् तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथाहि--यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बोध्यंते विषव्या
नामसंज-ज, भाव, अत्त, कतार, ल, त, भाव, कम्मत्त, त, सर्य, पुग्गल, दव्व । धातुसंश- कुण' करणे, हो सत्तायां, परि-नम नम्रीभावे । प्रकृतिशग्द-यत्, भाव, आत्मन्, कर्त, तत्, तत्, भाव, कर्मत्य, तत्, स्वयं, पुद्गल, द्रव्य । मूलधातु- डुकृञ् करणे, भू सत्तायां, परिणम प्रह्वत्वे, पूरी आप्यायने दिवादि व चुरादि, गल स्रवणे चुरादि । पदविवरण--द्वितीया एक० कर्मविशेषण, करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, भाव-द्वितीया एक कर्म, आत्मा-प्रथमा एक०, कर्ता-प्रथमा एक०, स:-प्र० ए०, है, तब उस मिथ्यादर्शनादिभावके अपनी अनुकूलतासे निमित्तमात्र होनेपर प्रात्मा कर्ताके बिना पुद्गलद्रव्य पाप हो मोहनीयादि कर्मरूपसे परिमन करता है । भावार्थ---प्रात्मा जब प्रज्ञान रूप परिणम करता है, तब किसीसे ममत्व करता है, किसीसे राग करता है, किसीसे द्वेष करता है, उन भावोंका पाप कर्ता होता है । उस विकारभावके निमित्तमात्र होनेपर पुद्गलद्रव्य आप अपने भावसे कर्मरूप होकर परिणमन करता है । यहाँ यद्यपि परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है । तो भी कर्ता दोनों अपने-अपने भावके हैं, यह निश्चय है ।
प्रसंगधिदरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया है कि प्रात्मा त्रिविध परिणाम विकारका कर्ता है । सो इस सम्बन्ध में यह जिज्ञासा होती है कि इस स्थितिसे बिगाड़ और क्या होता है उसका समाधान इस गाथामें है ।
तथ्यप्रकाश-(१) यह जीव जिस परिणामसे परिणमता है उसी भावका कर्ता होता है । (२) जीवके विभावपरिगमनका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य स्वयमेव कर्मरूपसे परिणमता है । (३) पुद्गलद्रव्यका कर्मरूप परिणमन मात्र उस पुद्गलद्रव्यमें अन्य द्रव्य (जीव) का परिएमन लिये बिना उसीके परिणमनसे होता है यह स्वयं परिणमनेका अर्थ है । (४) विकार