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________________ -. - - . - .. - -- -- . - - - १८५ समयसार भूतचिन्मात्रभावत्वेनेकविधोप्यशुद्धसांजनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानो बिकारेण परिणभ्य यं यं भावनात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात् ॥६॥ उपयोग:-प्रथमा एकवचन, त्रिविधः-प्रथमा एक०, शुद्धः-प्रथमा एक०, निरंजन:-प्रथमा एक०, भावः-- प्रथमा एक०, यं-द्वितीया एक०, स:-प्रथमाएर, करोनि-गईमा लट् वन्य दुहब एक, भावं-द्वितीया एक० कर्म, उपयोगः-प्रथमा एक० कर्ता, तस्य-षष्ठी एक०, स:-प्रथमा ए०, कर्ता--प्रथमा एकवचन ॥६०॥ तथ्यप्रकाश--(१) उदयागत मिथ्यादर्शन अानावरण व चारित्रमोह द्रव्यप्रत्ययका निमित्त होनेपर जीव त्रिविध विकृत होता है । (२) परमार्थसे जीव शुद्ध निरञ्जन अनादिनिधन चिन्मात्र वस्तु है। (३) विकारोंसे परिणम परिणम कर जिस-जिस भावको प्रात्मा करता है प्रात्मा उस उस भावका कर्ता होता है । सिद्धान्त-(५) प्रात्मा मोहयुक्तदशामें अपने विकाररूप परिणमता है सो उस परिणामका कर्ता है । (२) आत्मा परमार्थसे शुद्ध चिन्मात्र वस्तु है ।। दृष्टि - १- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) । २- शुद्धनय (१६८।। प्रयोग-सर्व परसंगको बाह्य तत्त्व जानकर उससे विविक्त शुद्ध चैतन्यस्वरूप अपने को अनुभवनेका पौरुष करना । प्रागे प्रात्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तापना होनेपर पुद्गलद्रव्य प्राप ही कर्मत्व रूप होकर परिणमन करता है, ऐसा कहते हैं- [प्रात्मा] आत्मा [यं मावं] जिस भावको [करोति] करता है [तस्प मावस्य] उस भावका [कर्ता] कर्ता [सः] वह [भवति] होता है [तस्मिन्] उसके कर्ता होनेपर [पुद्गलद्रव्य] पुद्गलद्रव्य [स्वयं] अपने पाप [कर्मत्वं] कर्मरूप [परिणमते] परिणमन करता है। तात्पर्य-प्रात्मा जिस विभावको करता है उस विभावका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणम जाता है । . टोकार्थ-आत्मा निश्चयसे पाप हो उस प्रकार परिणमन कर प्रगटरूपसे जिस भाव को करता है उसका यह कर्ता होता है, जैसे मंत्र साधने वाला पुरुष जिस प्रकारके ध्यानरूपभायसे स्वयं परिणमन करता है, उसी ध्यानका कर्ता होता है और समस्त उस साधकके साधने योग्य भावकी अनुकूलतासे उस ध्यानभावके निमित्तमात्र होनेपर उस साधकके बिना ही अन्य सादिककी विषकी व्याप्ति स्वयमेव मिट जाती है, स्त्री जन विडम्बनारूप हो जाती है और बंधन खुल जाते हैं इश्यादि कार्य मंत्रके ध्यानको सामर्थ्यसे हो जाते हैं । उसी प्रकार यह मात्मा प्रज्ञानसे मिध्यादर्शनादिभावसे परिणमन करता हमा मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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