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समयसार पादानापोहन निष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुंचति ।। तसोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति । सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बंधो न मे उदय, कर्मविपाक, च, तत्त्व, विजानत् । मूलधातु- ज्ञा अवबोधने, मुच मोक्षणे, वि-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण एवं-अव्यय । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया हैं । भावार्थ----परद्रव्यसे तो रम हो और अपनेको माने कोई सम्यग्दृष्टि तो उसके सम्यक्त्व कैसे कहा जा सकता, वह तो व्रत समिति पाले तो भी स्वपरका यथार्थ ज्ञान न होनेसे मिथ्यात्वपापसे युक्त ही है। जब तक यथाल्यात चारित्र न हो तब तक चारित्रमोह होनेसे बंध तो होता ही है । ज्ञान होने मात्रसे तो बंधसे छूटना नहीं होता, ज्ञान होनेके बाद उसी में लोन होनेरूप शुद्धोपयोगरूप चारित्र हो तो बंधन कटता है । इसलिये राग होनेपर बंधका न होना मानकर स्वच्छंद होना तो मिथ्यादृष्टि का चिन्ह ही है । प्रभुने सिद्धांतमें मिथ्यात्वको पाप कहा है। यहां मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधोके रागको प्रधान करके अज्ञानी कहा है, क्योंकि अपने और परके ज्ञान श्रद्धानके बिना परद्रव्यमें तथा उसके निमित्तसे हुए भावोंमें प्रात्मबुद्धि हो तथा राग द्वेष हो तब समझना कि इसके भेदज्ञान नहीं हुआ। मुनिभेष लेकर कोई व्रतसमिति भी पाले वहां पर जीवोंकी रक्षासे तथा शरीर संबंधी यत्नसे प्रवर्तनेसे, अपने शुभभाव होनेसे याने परद्रव्य संबंधी भावों से अपना मोक्ष होना माने और पर जीवोंका धत होना, ! प्रयत्नाचाररूप प्रवर्तना योगकी अशुभ क्रिया होना इत्यादि परद्रव्योंकी क्रियासे हो अपने में बंध माने तब तक भी समझना कि इसके स्त्र और परका ज्ञान नहीं हमा, क्योंकि बंध मोक्ष तो अपने भावोंसे था, परद्रव्य तो प्राश्रयमात्र था उसमें विपर्यय माना, यों कोई परद्रयसे हो भला बुरा मानकर रागद्वेष करे तब तक सम्यग्दृष्टि नहीं है। किन्तु जिसको निज सल्लस्वरूप का अनुभव हुग्रा और कुछ काल तक चारित्रमोहके रागादिक भी रहे तथा उनसे प्रति परद्रव्य सम्बन्धी शुभाशुभ क्रिया प्रवृत्ति भी रहे तो भी वह ज्ञानी ऐसा मानता है कि यह कर्म का जोर है इससे निवृत्त होनेसे ही मेरा भला है, उनको रोगके समान जानता है व पी सही नहीं जाती सो उनका इलाज करनेमें प्रवर्तता है तो भी इसके उनसे राग नहीं का जा सकता, क्योंकि जो रागको रोग माने उसके राग कैसा ? उसके मेटनेका ही उपाय कता है सो मेटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है । अध्यात्मपौरुषके प्राणमें मिथ्यात्वसहित रागको ही राग कहा गया है वह सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं और जिसके मित्व. सहित राग है वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । अज्ञानी मनुष्य था तो व्यवहारको सर्वथा छोकर भ्रष्ट हो जाता है अथवा निश्चयको अच्छी तरह नहीं जानकर व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है