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निर्जराधिकार एवं सम्मादिट्टी अप्पाणं मुणदि जाण्यसहावं । उदयं कम्मविवागं य मुयदि तच्चं बियाणंतो ॥२०॥
यों सुदृष्टि प्रात्माको, जाने ज्ञायकस्वभावमय पूरा ।
कर्मविपाक उदयको तजता, वह तत्वका ज्ञाता ॥२०॥ एवं सम्यग्दृष्टि: आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावें । उदयं कर्मविपाक च मुंचति तत्त्वं विजानन् ।।२०।।
एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विविच्य टकोत्कीरण कज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तस्वं विजानंश्च स्वपरभावो.
नामसंज्ञ-एवं सम्मादिदि, अप्प, जाणयसहाव, उदय, कम्मविवाग, य, तच्च, वियाणत । धातुसंश--मुण ज्ञाने, मुंच त्यागे, वि जाण अवबोधने । प्रातिपदिक -- एवं, सम्यग्दृष्टि, आत्मन्, ज्ञायकस्वभाव, सिम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि [प्रात्मानं] अपनेको [शायकस्वभावं] नायकस्वभाव जानाति] जानता है |] और [तत्त्वं] वस्तुके यथार्थ स्वरूपको [विजानन्] जानता हुमा [कर्मविपार्फ] कर्मविपाकरूप [उदयं] उदयको [मुञ्चति] छोड़ता है।
तापर्य-ज्ञानी अपनेको ज्ञायकस्वभावं जानता और विकारको परभाव जानकर छोड़ देता है।
टीकार्य--इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सामान्य तथा विशेषसे सभो परस्वभावरूप भावोंसे भिन्न होकर टंकोल्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभावरूप प्रात्माके तत्वको अच्छी तरह जानता है
और अ प्रकार तत्त्वको अच्छी तरह जानता हुश्रा स्वभावका ग्रहण और परभावका त्याग तारा तिष्पाद्य अपने वस्तुपनेको फैलाता हुमा कर्मके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुए सब भायों को छड़ता है । इस कारण यह सम्यग्दृष्टि नियमसे ज्ञान व वैराग्यसे सम्पन्न होता है।
भावार्थ--जब अपनेको तो ज्ञायक भावस्वरूप सहजानन्दमय जाने और कर्मके उदय से हर भावोंको परभावस्वरूप प्राकुलतामय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोंसे विरक्त होनाये दोनों होते ही हैं । यह तथ्य अनुभवगोचर है और यही सम्यग्दृष्टिका परिचय है।
अब कहते हैं कि यदि कोई अपनेको ज्ञानी माने और परद्रव्योंमें आसक्त हो तो वहथा ही सम्यग्दृष्टिपनेका अभिमान करता है-सम्यग्दृष्टि इत्यादि। अर्थ- यह मैं स्वयं सयग्दृष्टि हूं मेरे कभी भी कर्मका बंध नहीं होता; ऐसा मानकर जिनका मुख गर्वसहित ऊंचा ल्ला है तथा हर्ष सहित रोमांचरूप हुमा है वे जीव महाव्रतादि आवरण करे तथा वचन बहार आहारको क्रियामें सावधानीसे प्रवर्तनेकी उत्कृष्टताका भी अवलंबन करें तो भी पापी मध्यादृष्टि ही हैं, क्योंकि प्रात्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेके कारण सम्यक्त्वसे शून्य