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निर्जराधिकार
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स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरंतु । श्रालंबंता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यवत्वरिक्ताः ।। १३७|| || २०० ॥
एक कर्मकारक । मुवि जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया जाणायसहावं ज्ञायकस्वभावद्वितीया एक कर्मविशेषण । उदयं द्वितीया एकवचन । कम्मविचार्ग कर्मविपाक - द्वितीया एक० 1 मुअदि मुंचति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । तचं तत्त्वं द्वितीया एक० । विवाणतो विजानन्तः - प्रथमा बहुवचन ।।१६६ ।।
वह परमार्थतत्त्वमें मूड है । स्वाद्वादय द्वारा सत्यार्थ समोसे ही सम्यक्त्वका लाभ होगा |
प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि स्वव परको विशेषतया कैसा जानता है ? अब इस गाथा में उसी तथ्यका प्रायोजनिक विधिसे वर्णन किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) सम्यग्दृष्टि अपने आपको कर्मविपाकज भावोंसे निराला निरखता है । (२) सम्यग्दृष्टि भिन्न-भिन्न रूपसे क्रोध, मान श्रादि कर्मविपाकज भावोंसे अपनेको निराला निरखता है । (३) सम्यग्दृष्टि अपना सर्वस्व शाश्वत एक ज्ञायकस्वभावको अनुभवता है । ( ४ ) सम्यग्दृष्टि अपने स्वभावका उपादान करके तथा परभावोंका परिहार करके अपनी वास्तविकता को प्रकट करता है । (५) सम्यग्दृष्टि निज सहज ज्ञानस्वभाव के ग्रहण से ज्ञानसम्पन्न है व कर्मोंदयविपाकप्रभव भावोंको त्याग देनेसे वैराग्यसम्पन्न है ।
सिद्धान्त -- ( १ ) सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञायकस्वभावरूप अपनेको जाननेकी परिणतिसे परिणमता है । ( २ ) कर्मविपाकोदय कर्मका परिणमन है । ( ३ ) कर्मविपाकोदयविषयक परि ज्ञान आत्माका परिणमन है ।
दृष्टि —-१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) २ - अशुद्ध निश्चयनय (४७) । ३ - उपादानदृष्टि (४६) ।
प्रयोग - कर्मोदयविपाकप्रभव भावकी अपवित्रता दूर करनेके लिये मन, वचन, काय की वृत्तिका निरोध करके नित्यानन्दैकस्वभाव सहज परमात्मतत्वमें उपयोग रमानेका पौरुष
करना || २०० ||
सम्यग्दृष्टि रागो कैसे नहीं होता ? यदि ऐसा पूछें तो सुनिये - [ खलु ] निश्चय से [यस्य ] जिस जीवके [ रागादीनां ] रागादिकोंका [परमाणुमात्रमपि ] लेशमात्र भी [तु विद्यते ] • मौजूद है तो [सः ] वह जीव [सर्वागमधरोपि] सर्व श्रागमको पढ़ा हुआ होनेपर भी [श्रात्मानं