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शादिकर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिरणामस्वभावत्वं । स्थितेत्यविध्ना खलु पुद्गल - स्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ ६४ ॥ ।। ११६ - १२० ।
समयसार
अन्य पुरुष एक् । कर्मभावेन तृ० ए० पुद्गल प्र० ए० । द्रव्यम् - प्र० ए० । जीवः - प्र० ए० । कर्म द्वि० एक० | कर्मत्वं द्वि० ए० या क्रियाविशेषण अव्यय । इति-अव्यय । मिथ्या - अ० । नियमात् - पंत्रमी एक० । कर्मपरिणतं कर्म - प्र० ए० । भवति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ११६-१२० ।।
प्रयोग -- पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणमनस्वभाव है किन्तु जीव उसे करता नही है, ऐसा जानकर पुद्गलसे करनेका पौरुष करना ।। ११६-१२० ॥
उसको जीवपरिणाम निमित्तमात्र है, भिन्न निज परमात्मतत्वको उपासना
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अब जीवद्रव्यका परिणामित्व सिद्ध करते हैं- सांख्यमतानुयायी शिष्यसे प्राचार्यं कहते हैं कि हे भाई [ब] तेरी बुद्धि में [ यदि ] यदि [ एष जीवः ] यह जीव [ कर्मरिण ] कर्म में [ स्वयं ] स्वयं [ बद्धः न ] बँधा नहीं है और [ क्रोधादिभिः ] क्रोधादि भाव से [ स्वयं ] स्वयं [न परिणमति ] नहीं परिणमता [ तवा ] तो [ अपरिणामी] वह जीव परिणामी [भवति ] प्रसक्त होता है [ जोवे ] और जीवके [ क्रोधादिभिः भावः क्रोधादि भावों द्वारा [ स्वयं अपरिणममाने] स्वयं परिणत न होनेपर [ संसारस्य अभाव: ] संसारका प्रभाव [ प्रस जयते] प्रसक्त हो जायगा [वा ] प्रथवा [ सांख्यसमयः ] सांख्यमत प्रसक्त हो जावेगा । यदि कोई कहे कि [ पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म जो [क्रोधः ] क्रोध है वह [जीवं ] जीवको [ क्रोधत्वं ] क्रोधभावरूप [परिमयति ] परिणामाता है तो [ स्वयं अपरिणममानं ] स्वयं न परिणत हुए [तं] जीवको [ ऋोषः ] क्रोधकर्म [ कथं नु ] कैसे [ परिणामयति ] परिणमा सकता है ? [ अथ ] यदि [ से एषा बुद्धिः ] तेरी ऐसी समझ है कि [ श्रात्मा] आत्मा [ स्वयं ] अपने आप [ क्रोधभावेन ] क्रोधभाव से [ परिणमते ] परिणमन करता है तो [ क्रोधः ] पुद्गलकर्मरूप क्रोध [जोध ] जीवको [ क्रोधस्वं ] क्रोधभावरूप [ परिणामयति ] परिणमाता है [ इति मिथ्या ] ऐसा कहना मिथ्या ठहरता है । इसलिये यह सिद्धान्त है कि [ क्रोधोपयुक्तः ] क्रोध में उपयुक्त अर्थात् जिसका उपयोग क्रोधाकाररूप परिणमता है, ऐसा [आत्मा] श्रात्मा [ क्रोधः ] क्रोध ही है [ मानोषयुक्तः ] मानसे उपयुक्त होता हुआ [मानः ] मान ही है, [ माउबजुसो ] मायासे उपयुक्त [ माया ] माया ही है [च] और [ लोभोपयुक्तः ] लोभसे उपयुक्त होता हुआ [ लोभः ] लोभ ही [भवति ] है ।
टीकार्थ- जीव कर्ममें स्वयं नहीं बँधा हुआ क्रोधादि भावसे आप नहीं परिणमे तो वह जीव वास्तव में अपरिणामी ही सिद्ध होगा । ऐसा होनेपर संसारका प्रभाव प्राता है अथवा