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________________ कर्तृकर्माधिकार २५१ तीति वितकः तदा जीवपुद्गलकर्मणोः सहभूतसुधारिद्रयोरिव द्वयोरपि रागाद्यज्ञानपरिणामाजीवस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय 1 कर्मणा-तृतीया एक० । च-अव्यय । सह-अव्यय । परिणामाः-प्रथमा बहुवचन । खलु-अव्यय । भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । रागादयः-प्र० बहु । एवं-अव्यय । मीवः-प्रथमा एक० । कर्म-प्रथमा एक० । च-अध्यय । द्वे-प्रथमा द्विवचन । अपि-अव्यय । रागादित्वंद्वितीया एक० । आपन्ने-प्रथमा द्विवचन । एकस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । परिणामः-प्रथमा एक० । टोकार्थ-यदि जीवका रागादि प्रज्ञान परिणाम अपने निमित्तभूत उदयमें पाये हुए पुद्गलकर्मके साथ ही होता है, यह तर्क किया जाय तो हल्दी और फिटकरीको भौति याने जैसे रंगमें हल्दी और फिटकरी साथ डालनेसे उन दोनोंका एक रंगस्वरूप परिणाम होता है वैसे ही जीव और पुद्गलकर्म दोनोंके ही रागादि प्रशानपरिणामका प्रसंग पा जायगा {किन्तु ऐसा तथ्य नहीं है) । यदि रागादि प्रज्ञानपरिणाम एक जीवके ही माना जाय तो इस मन्तव्यसे ही यह सिद्ध हुना कि पुद्गलकर्मका उदय जो कि जीवके रागादि प्रज्ञान परिणामोंका कारण है, उससे पृथग्भूत ही जीवका परिणाम है । मावार्थ- यदि माना जाय कि जीव और कर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो जीव और कर्म इन दोनोंके रागानिककी प्राप्तिमा जायगी, किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये पुद्गलकमका उदय जोयफे प्रज्ञानरूप रागादि परिणामोंको निमित्त है । उस निमित्तसे भिन्न ही जीवका परिणाम है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथापंचकमें जीवपरिणाम व कर्मपरिणामके निमितनैमित्तिक भावका निर्देश किया है । सो इससे कहीं यह नहीं समझना कि उनमें कर्तृकर्मत्व हो या वे एकरूप हों । इसी तथ्यको इन दो गाथावोंमें दर्शाया गया है कि जीवके परिणाम पुद्गलद्रव्यसे पृथग्भूत ही हैं। तथ्यप्रकाश--(१) जीवका परिणाम जीवमें अकेले में जीके पोलेके परिणमनसे ही होता है । (२) यदि जीवके रागादि परिणाम तन्निमित्तभूत उदित फर्मके साथ हों तो जीव और पुद्गल दोनों में ही रागादि प्रज्ञानपरिणाम हो बैठनेका दोष पावेगा। (३) जब जीवमें अकेले के परिणामसे ही जीव विभाव होता है तब स्पष्ट सिद्ध है कि निमिसभूत पुद्गलकमविपाकसे भिन्न ही जीवविभाव है। सिद्धान्त-१- जीव उपचारसे द्रव्यकर्मका कर्ता है। २-- पशुसोपादान जीव भाष. कर्मका कर्ता है। दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपचरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२१)। २- पशुद्धनिश्णय. नय (४७)। प्रयोग- अपने विभावपरिणामको कर्मपरिणामसे भिन्न समझकर और कर्मपरिणाम
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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