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________________ २५० समयसार पुद्गलद्रव्यात्पृथग्भूत एव जीवस्य परिणामः-- जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दोवि रागादिमावण्णा ॥१३७॥ एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं । ता कम्मोदयहेहि विणा जीवस्स परिणामो ॥१३८॥ जीवके राग आविक, विधिके परिणाम साथ हो तो। यो जीव कर्म दो के, रागादि प्रसक्त होवेंगे ॥१३७।। इन राग आदिसे पवि, होता परिणाम जीव एकहि का। तो उत्थागत विधिसे, जीवपरिणाम पृथक ही है ॥१३॥ जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भवंति रागादयः । एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने । एकस्प तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः । तत्कर्मोदयहेतुभिविना जीवस्य परिणामः । यदि जीवस्य तन्निमित्तभूतविपध्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाधशानपरिणामो भय नामसंश-जीव, दु, कम्म, य, सह, परिणाम, रागादि, एवं, जीव, कम्म, च, दो, वि, रागादि, मावष्ण, दु, परिणाम, जीव, रागमादि, त, कम्मोदयहेदु, विणा, जीव, परिणाम । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, जा प्रादुर्भावे । प्रकृतिशब-जीव, तु, कर्मन्, च, सह, परिणाम, रागादि, एवं, जीव, फर्मन्, च, द्वि, अपि, रागादित्व, आपन्न, एक, तु, परिणाम, जीव, रागादि, तत् कर्मोदयहेतु, विना, जीव, परिणाम । मूलधातुजीव प्राणधारणे, परि-णम प्रबत्वे, भू सत्तायां, रंज रागे भ्वादि दिवादि, जनी प्रादुर्भाव । पदविवरण प्रयोग-जीव अपनी स्वभावदृष्टि तजकर रागादिरूपसे परिणमता है तब द्रव्यप्रत्यय नवीनकर्मके पालवका निमित्त होता है । अतः अपने अविकार ज्ञानस्वभावमय प्रात्माको दृष्टि का पौरुष करना ताकि द्रध्यप्रत्यय नवीनकर्मास्रवका निमित्त न हो सके ।।१३२-१३६॥ प्रद जीवका परिणाम पुद्गलद्रव्यसे पृथक् ही है इसका युक्तिपूर्वक समर्थन करते हैंतु जीवस्य] यदि ऐसा माना जाय कि जीवके [रागावयः] रागादिक [परिणामाः] परिणाम [ख] वास्तवमें [कर्मणा घ सह कर्मके साथ होते हैं [एवं] इस प्रकार तो [जीवः च कर्म] जोष और कर्म [ अपि] ये दोनों ही [रागादिस्वं प्रापन्ने] रागादि परिणामको प्राप्त हो पड़ते हैं । [] परन्तु [रागादिभिः] रागादिकोंसे [परिणामः] परिणमन तो [एकस्य जोयस्य] एक जीवका ही [जायते] उत्पन्न होता है [तत्] वह [कर्मोक्ष्यहेतु विना] कर्मके उदयरूप निमित्त कारणसे पृथक् [जीवस्य परिणामः] जीवका ही परिणाम है। तात्पर्य---जीवका परिणमन जीवमें, पुद्गलकमका परिणमन पुद्गलकर्ममें है, कोई भी परिणमन दोनोंका एक नहीं है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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