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________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ६२३ | ४६| न करोमि कायेन चेति १४७॥ न कारयामि कायेन चेति ॥४८॥ न कुर्वन्तमध्यन्यं समनुनुजानामि कायेन चेति २४६| मोहविलासविजूभित सकलपालोच्य । भ्रात्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ २२७॥ इत्यालोचनाकल्पः समाप्तः । न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च धाचा च कायेन चेति |१| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति |२| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति | ३ | न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा व कायेन चेति |४| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति | ५ | न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि बाचा चेति । ६३ न करिएक० । दु तु-अव्यय । कम्मफल कर्मफलं द्वितीया एक० । सो सः - प्रथमा एक० तं वि० एक० । पुणो हूं ॥४५॥ वचनसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूँ |४६| कायसे न में करता हूं ॥४७॥ कायसे न मैं कराता हूं ।४८। कायसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूँ |४६ | ( इस प्रकार प्रतिक्रमण के समान आलोचनामें भी ४६ प्रङ्ग कहे ) । अब इस कथनको कलशरूप काव्य में कहते हैं:-मोहविलास इत्यादि । अर्थ- मोह के विलास से फैले हुए इस उदीयमान में कर्मको आलोचना करके मैं निष्कर्म चैतन्यस्वरूप आत्मा से आत्मा के द्वारा ही निरन्तर वर्त रहा हूं। भावार्थ --- वर्तमानकाल में जो कर्मको उदय श्रा रहा है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा नहीं, मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भ्रात्मा हूं । मेरी तो दर्शनशानरूप प्रवृत्ति है । उस दर्शन- ज्ञानरूप प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयामत कर्मको देखने, जानने वाला हूं । मैं अपने स्वरूप में ही प्रवर्तमान हूं। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है । इस प्रकार आलोचना कल्प समात हुआ । अब टीकामें प्रत्याख्यान कल्प कहते हैं । प्रत्याख्यान करने वाला कहता है कि मैं मनसे, वचनसे तथा कायसे भविष्य में कर्म न तो करूंगा, न कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूँगा || १ || मनसे तथा वचनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊंगा, न मन्य करते हुये का अनुमोदन करूंगा ||२|| मनसे तथा कायसे में न तो करूंगा, न कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ||३|| वचनसे तथा कायसे में न तो करूंगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूंगा ॥४॥ मनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊँगा, न धन्य करते हुएका अनुमोदन करूंगा ||५|| वचन से में न तो करूया न कराऊंगा, न अभ्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ||६|| कायसे में न तो कथा, ना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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