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________________ समयसार मोक्षबंधमागी तु प्रत्येक केयलंजीव पुद्गलमयत्वादनेको तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबंधमा- ।। श्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म । हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदाल हि कर्मभेदः तद्बधमागश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खल बंधहेतुः ॥१०२।। ।।१४५।। चुरुप बहुवचन । कथं--अव्यय । तत्-प्रथमा एकवचन | सुशील-प्रथमा एक० । यत्-प्रथमा एक० । संसारद्रि० ए० | प्रवेशयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन णिजत ।।१४५।। अब इसी अर्थका समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं-हेतु इत्यादि । अर्थ-हेतु, स्वभाव, अनुभव और पाश्रय इन चारोंके सदाकाल हो अभेदसे कर्ममें भेद नहीं है, इसलिये बंधके को प्राश्रय कर कर्म एक ही माना है क्योंकि सभी कर्म याने शभ तथा अशुभकर्म दोनों ही स्वयं निश्चयसे बंधके हो कारण हैं। प्रसंगविवरण-पूर्व कर्तृकर्माधिकारमें जीव व पुद्गलकर्मके संबंधों कर्तृकर्मत्वप्रतिपंध, निमित्तनैमित्तिकभाव आदि कई स्थलोंमें पुद्गलकर्मकी चर्चा आई थी । वही पुद्गलकर्म अब इस पुण्यपापाधिकारमें दो पात्र बन कर प्रवेश करता है। इस गाथामें उन्हीं पुण्यपाप दोनों वेशोंकी समीक्षा की गई है। तथ्यप्रकाश----यद्यपि शुभपरिणामसे पुण्यबंध व अशुभपरिणामसे पाप बंध होनेसे याने कारणभेद होनेसे पुण्य पाप ये भिन्न-भिन्न हैं तथापि शुभ अशुभ दोनों जीवपरिणाम अज्ञानमय होनेसे एक अज्ञानमय है और कारणभेद न होनेसे पुण्य पाप दोनों एक ही हैं। २-यद्यपि पुण्य शुभपुद्गलपरिणाम है, पाप अशुभपुद्गलपरिणाममय है तथापि हैं केवल घुद्गलमय, अतः स्वभावका भेद न होनेसे दोनों एक ही है । ३-यद्यपि पुण्य शुभफलपाक है, पाप अशुभफलपाक है तथापि हैं दोनों पुद्गलमय विकाररूप, अतः अनुभवके अभेदसे दोनों कर्म एक ही हैं । ४- यद्यपि लौकिक जीवोंको ऐसा मालूम होता है कि पुण्य तो मोक्षमार्ग है और पाप बंधमार्ग है, लेकिन ऐसा है नहीं, मोक्षमार्ग तो केवल जीवमय है और बंधमार्ग केवल पुद्गलमय है, ओं पुण्यपाप दोनों केवल पुद्गलमय बन्धमार्गाश्रित है, अत: पाश्रयका अभेद होनेसे पुण्यपाप दोनों कर्म एक ही हैं। सिद्धान्त-(१) प्रकृत्यादिभेदसे पुण्य व पापकर्म में भेद है । (२) दुःखरूपत्व प्रादिकी दृष्टि से पुण्यपाएमें प्रभेद है। दृष्टि---१- बैलक्षण्यनय (२०३) । २- सादृश्यनय (२०२) । प्रयोग-पुण्य-पापकर्मको, पुण्य-पापकर्मके फल सुख-दुःखको, पुण्य-पापके हेतुभूत शुभाशुभभावको विकृतपनेकी दृष्टिसे एक समान जानकर उन सबसे उपेक्षा करके निष्कर्म
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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