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________________ पुण्यपापाधिकार २७१ शुभशुभ वा जोवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म । शुभोऽशुभो वा पुद्गल परिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म । शुभशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलम यत्वादेकस्तनले सत्यनुभवाभेदादेकं कर्म । शुभाशुभ कुशील--द्वितीया एकवचन । शुभकर्म - द्वि० एक० । च--अव्यय अपि अव्यय | जानीथ - वर्तमान लट् मध्यम असे कर्म एक ही है । भावार्थ - कर्म में शुभ-अशुभके भेदका समर्थन पूर्वस्थल में शङ्काकारने चार युक्तियां (१) कारणभेद, ( २ ) स्वभावभेद, (३) अनुभवभेद, ( ४ ) श्राश्रयभेद देकर कहा था उसमें कारणभेद तो बताया था कि शुभबंध शुभपरिणामसे होता व प्रशुभबन्ध शुभ परिणाम से होता है । जैसे जीवका शुभपरिणाम है अरहंतादिमें भक्तिका अनुराग, जीवों में अनुकंपा परिरणाम और मंदकषायसे चित्तको उज्ज्वलता इत्यादि, तथा प्रशुभका हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं - तीव्र क्रोधादिक, अशुभलेश्या, निर्दयता, विषयासक्तता, देव गुरु आदि पूज्य पुरुषों में विनयरूप प्रवृत्ति इत्यादिक, सो इन हेतुस्रोंके भेदसे कर्म शुभाशुभरूपं दो प्रकारके कहे थे । और शुभ अशुभ पुद्गल के परिणाम के भेद से स्वभावका भेद कहा था, शुभद्रव्यकर्म तो सातावेदनीय, शुभप्रायु, शुभनाम शुभगोत्र हैं तथा अशुभ चार घातियाकमं, असातावेदनीय, अशुभश्रायु, अशुभनाम, प्रशुभगोत्र ये हैं, इनके उदयसे प्राणीको इष्ट- अनिष्ट सामग्री मिलती है, ये पुद्गल के स्वभाव हैं, यों इनके भेदसे कर्ममें स्वभावका भेद बताया था। तथा शुभ अशुभ अनुभव के भेदसे भेद बताया था -- शुभका अनुभव तो सुखरूप स्वाद है और अशुभका दुःखरूप स्वाद | तथा शुभाशुभ प्रश्रयके भेदसे भेद बताया था कि शुभका तो माश्रय मोक्षमार्ग है और अशुभका आश्रय बंधमार्ग है । अब इस गाथामें उन भेदोंका निषेधपक्ष कह रहे हैं - शुभ और अशुभ दोनों जीवके परिणाम अज्ञानमय हैं इसलिये दोनोंका एक अज्ञान ही कारण है, इस कारण हेतुके भेदसे कर्म में भेद नहीं है । शुभ-अशुभ ये दोनों पुद्गल के परिणाम हैं इसलिये पुद्गल परिणामरूप स्वभाव भी दोनोंका एक ही है, इस कारण स्वभाव के अभेदसे भी कर्म एक ही है । शुभाशुभ फल सुखदुःखस्वरूप स्वाद भी पुद्गलमय हो है इसलिये स्वाद के अभेद से भी कर्म एक ही है । शंकाकारने शुभ-अशुभ मोक्ष-बंधमार्ग कहे थे, किंतु वहां मोक्षमार्ग तो केवल जीवका ही परिणाम है और बंधमार्ग केवल एक पुद्गलका ही परिणाम है, श्राश्रय भिन्न-भिन्न हैं इसलिये बंधमार्गके श्राश्रयसे भी शुभ व अशुभ कर्म एक ही है । इस प्रकार यहाँ कर्मके शुभाशुभ भेदके पक्षको गौराकर निषेध किया, क्योंकि यहां प्रभेदपक्ष प्रधान है, अतः प्रभेदपक्ष से देखा जाय तो कर्म एक ही है, शुभ अशुभ ऐसे भिन्न दो नहीं हैं ।। १४५ ।।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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