________________
२५०
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकाम चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥१४५॥ है पापकर्म कुत्सित, सुशील है पुण्यकर्म जग जाने ।
शुभ है सुशील केसा, जो भवमें जीवको डारे ॥१४५॥ . कर्माशुभं कुशील शुभकर्म चापि जानीथ सुशील । कथं तद् भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ।।१४५।।
शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात् शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति स्वभावभेदात् शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात् शुभाशुभ मोक्षबंधमार्माश्रितत्वे सत्याश्रयभेदात चकमपि कर्म किचिच्छभं किंचिदशुभमिति केषांचित्किल पक्षः, स तु सप्रतिपक्षः । तथाहिअपि, सुशील, कथं, तत्, सुशील, यत्, संसार। मूलधातु-अ-शुभ शोभा दुरादि, शील समाधौ भ्वादि, सम्-सु गती, प्र-विश प्रवेशने तुदादि णिजन्त । पविवरण-कर्म-द्वितीया एक० । अशुभं-द्वितीया एक० । जामो । परन्तु परमार्थदृष्टिसे कहते हैं कि [यत्] जो संसारप्राणीको संसारमें ही [प्रवेशयति] प्रवेश कराता है [तत्] वह कर्म [सुशील] शुभ, अच्छा [कथं] कैसे [भवति] हो सकता है ?
तात्पर्य-संसारप्रवेशक कर्ममें अच्छा बुराका भेद नहीं मानना वे सब हेय हैं।
टीकार्य-कितने ही लोकोंका ऐसा पक्ष है कि कर्म एक होनेपर भी शुभ-अशुभके भेद से दो भेदरूप है, क्योकि (१) शुभ और अशुभ जो जीवके परिणाम हैं, बे उसको निमित्त है उस रूपसे कारणके भेदसे भेद है । (२) शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाममय होनेसे स्वभाव के भेदसे भेद है और (३) कर्मका जो शुभ-अशुभ फल है, उसके रसास्वादके भेदसे भेद है तथा (४) शुभ-अशुभ मोक्ष तथा बंधके मार्गकी प्राश्रितता होनेपर प्रश्रियमें भेदसे भेद है । इस प्रकार इन चारों हेतुअोंसे कोई कर्म शुभ है, कोई कर्म प्रशुभ है, ऐसा किसीका पक्ष है । परन्तु वह पक्ष उसका निषेध करने बाले प्रतिपक्षसे सहित है । अब यही कहते हैं-शुभ ब प्रशुभ जीवका परिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक ही है, सो उसके एक होनेपर कारणका अभेद होनेसे कर्म भी एक ही है तथा शुभ प्रथवा अशुभ पुद्गलका परिणाम केवल पुद्गलमय होनेसे एक ही है और उसके एक होनेपर स्वभावके अभेदसे कर्म भी एक ही है । शुभ अथवा अशुभ कर्भके फलका रस केवल पुद्गलमय होनेसे एक है और उसके एक होनेपर प्रास्वादके . अभेदसे कर्म भी एक ही है। शुभ अशुभरूप मोक्ष प्रौर बंधका मागं ये दोनों पृथक् हैं, केवल जीवमय तो मोक्षका मार्ग है और केवल पुद्गलमय बंधका मार्ग है अतः वे अनेक हैं, एक नहीं हैं और उनके एक न होनेपर केवल पुद्गलमय बंधमार्गकी प्राश्रितताके कारण प्राश्रयके