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________________ पुण्यपापाधिकार २६६ --- - अथ पुण्यपापाधिकार अर्थकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति-- तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो, द्वितयतां गतमक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं, स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ॥१०॥ एको दुरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वाबप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥१०१॥ नामसंज्ञ-कम्म, असुह, कुसील, सुहकम्म, च, अवि, सुसील, कह, त, सुसील, ज, संसार । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधने, हो सत्तायों, प-विस प्रवेशने । प्रकृतिशब्द - कर्मन्, अशुभ, कुशील, शुभकर्मन, च, अब एक ही कर्म दो पात्ररूप होकर पुण्यपाषरूपसे प्रवेश करता है-तदय इत्यादि । अर्थ-कर्तृकर्माधिकारमें तथ्यबोधके बाद शुभ अशुभके भेदसे द्विरूपताको प्राप्त हुए कर्मके एकत्वको प्राप्त करता हुआ यह अनुभवगोचर सम्यग्मानरूप चंद्रमा स्वयं उदयको प्राप्त होता है । भावार्थ-कर्म एक होकर भी अज्ञानसे दो प्रकारमें दीखता था, उसे ज्ञानने एकरूपमें ही दिखला दिया सो इस ज्ञानने जो मोहरूपी रज लगी हुई थी, उसे दूर कर दी, तब हो यथार्थ ज्ञान हुा । जैसे कि चन्द्रमाके सामने बादल अथवा पालेका समूह प्रादि पा जाय तब यथार्थ प्रकाश नहीं होता, यावरण दूर होनेपर यथार्थ प्रकाश होता है। आगे पुण्यपापके स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य' कहते हैं-एको दूराव इत्यादि । अर्थ--- एक तो मैं ब्राह्मण हूं, इस अभिमानसे मद्यको दूरसे हो छोड़ देता है तथा दूसरा पुत्र 'मैं शूद्र हूं' ऐसा मानकर उस मदिरासे नित्य स्नान करता है, उसे शुद्ध मानता है । विचारा जाय तब दोनों ही शूद्रीके पुत्र हैं, क्योंकि दोनों ही शूद्रीके उदरसे जन्मे हैं, इस कारण साक्षात् शूद्र हैं । वे जातिभेदके भ्रमसे ऐसा पाचरण करते हैं । भावार्थ-किसी शुद्रोके दो पुत्र हुए, उसने दोनोंको नदीके घाटपर पेड़के नीचे छोड़ दिये उनमें एकको ब्राह्मण उठा लाया, एकको शूद्र उठा लाया । अब जो ब्राह्मणके यहाँ पला वह ब्राह्मणपनेके गर्वसे ब्राह्मण जैसा माचरण करता है और जो शूद्रके यहाँ पला वह शूद्र जैसा आचरण करता है वास्तवमें हैं दोनों शुद्र । ऐसे ही कर्म तो पुण्य-पाप दोनों हैं, पर उनमें शुभ अशुभका भेद डाल दिया गया है। अब शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन करते हैं-[प्रशुभं कर्म] अशुभ कर्मको [कुशीलं] पापस्वभाव [अपि च] और [शुभकर्म] शुभकर्मको [सुशोल] पुण्यस्वभाव [जानीय]
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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