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________________ ६५६ समयसार पश्यति ।। व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयंति नो जनाः। तुषबोधविमुग्ध बुद्धयः कलयंतीह तुषं न तंडुलं ।।२४२।। द्रव्यलिंगममकारमीलित: दृश्यते समय सार एव न । द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वत: ॥२४३।। ।। ४१३ ।। लिंगेसु गृहिलिगेषु बहुप्पयारेसु बहुप्रकारेषु-सप्तमी वहु० । कुवंति कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु. किया । जे ये-प्रथमा बहु० । ममत्तं ममत्वं-द्वि० ए०। तेहि तै:-तृ० बहु० । ण न-अव्यय । णायं ज्ञात:प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । समयसार समयसार:-प्रथमा एक० ।। ४१३ ।। होता । ८-मैं केवल चैतन्यमात्र प्रात्मपदार्थ हूँ इस प्राशयमें ज्ञानका शुद्धप्रकाश है । ६-जान प्रकाश स्वसे होता है, द्रव्यलिङ्ग परसे अर्थात् देहसे होता है, अत: ज्ञानप्रकाशरूप मोक्षमार्गका मिलन प्रधलिङ्गसे नहीं। सिद्धान्त--१-मात्माके प्रात्मीय पुरुषार्थसे शुद्धात्मस्व की सिद्धि होती है । दृष्टि-१-पुरुषकारनय (१८३) । प्रयोग--शुद्धात्मत्वकी प्रकटताके लिये देहवेशदृष्टि न रखकर चैतन्यमात्र शुद्धात्मस्व. स्वरूपको ही उपयोगमें बनाये रहना ॥४१३।। अब लहते हैं कि यहारमय तो मुनि श्रावकके भेदसें दो प्रकारके लिंगोंको मोक्षमार्ग कहता है और निश्वयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता--[व्यावहारिकः नयः] व्यवहारनय [ लिंगे पि] मुनि श्रावकके भेदसे दोनों ही प्रकारके लिंगोंको [मोक्षपये भरणति] मोक्षमार्ग कहता है [पुनः] पोर [निश्चयनयः] निश्चयनय [सलिगानि] सभी लिंगोंको [मोक्षपणे न इच्छति] मोक्षमार्गमें इष्ट नहीं करता। तात्पर्य-मुनि और श्रावक वेशको व्यवहारसे ही मोक्षमागं कहा गया है, निश्चयनय से कोई भी वेश मोक्षमार्ग नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही मोक्षमार्ग है । टीकार्य-मुनि और उपासकके भेदसे दो प्रकारका लिङ्ग मोक्षमार्ग है जो ऐसा कहना है वह केवल व्यवहार हो है परमार्थ नहीं है, क्योंकि उस व्यवहारनयके स्वयं प्रशुद्ध द्रव्यका अनुभवस्वरूपपना होनेपर परमार्थपनेका अभाव है । तथा मुनि और श्रावकके भेदसे भिन्न दर्शन शान चारित्रकी प्रवृत्तिमात्र निर्मलज्ञान ही एक है, ऐसा निर्मल जो अनुभवन है वही परमार्थ है । क्योंकि ऐसे ज्ञान के ही स्वयं शुद्धद्रव्यरूप होनेका स्वरूपपना होनेपर परमार्थपना है । इसलिये जो पुरुष केवल व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे अनुभवते हैं वे समयसार का अनुभव नहीं करते, जो परमार्थका ही परमार्थकी बुद्धिसे अनुभव करते है वे हो इस समरसारको अनुभवते हैं । भावार्थ--व्यवहारनयका विषय भेदरूप अशुद्धद्रव्य और निश्चय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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