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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६५७ ववहारियो पुण णो दोण्णिवि लिंगाणि भाइ मोक्खपहे । णिच्छयणो ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥ ४१४ ॥ व्यवहारनय बताता, दोनों ही लिङ्ग मोक्षके पथ हैं। निश्चय सब लिडोको, शिवपथमें इष्ट नहिं करता ॥४१४॥ व्यावहारिक: नयः पुनः द्वे अपि लिंगे भणति मोक्षपथे । निश्चयनयः न इच्छति मोक्षपथे सर्वलिंगानि ।। यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थस्तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात् । यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रांत दृशिज्ञप्तिवृत्तप्रवृत्तिमात्र शुद्धज्ञान मेवैकमिति निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् । ततो ये व्यवहार नामसंज–ववहारिओ, पुण, ण, दु, वि, लिंग, मोक्खपह, णिच्छयण, ण, मोक्खपह, सलिंग । धातुसंज-भण कथने, इच्छ इच्छायां । प्रातिपषिक–व्यावहारिक, पुनर्, नय, द्वि, अपि, लिङ्ग. मोक्षपथ, नयका विषय अभेवरूप शुद्ध द्रव्य परमार्थ है । जो व्यवहारको ही निश्चय मानकर प्रवर्तन कर रहे हैं उनको समयसारको प्राप्ति नहीं है, और जो परमार्थको परमार्थ जानते हैं उनको समयसारको प्राप्ति होती है और वे ही मोक्ष पाते हैं। अब काध्यमें कहते हैं कि बहुत कहने से क्या लाभ, एक परमार्थ का ही चितवन करना-प्रलमल इत्यादि । अर्थ-बहुत कहनेसे और बहुतसे दुर्विकल्पोंसे बस होप्रो, उनमे कुछ लाभ नहीं । एक परमार्थका ही निरन्तर अनुभवन करना चाहिये । क्योंकि वास्तवमें अपने रसके फैलावसे पूर्ण ज्ञानके स्फुरायमान होने मात्र समयसार याने सहज परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्य कुछ भी सार नहीं है । भावार्थ-परमार्थतः पूर्ण ज्ञानस्वरूप प्रात्माका अनुभव करना हो समयसार है। __ अब इस समयसार ग्रंथकी पूर्णताका संकेत करते हैं--इदमेकं इत्यादि । अर्थ - पानन्दमय विज्ञानधनको प्रत्यक्ष करता हुआ यह एक अक्षय जगच्चक्षु पूर्णताको प्राप्त होता है। भावार्थ-यह समयप्राभूतग्रंथ वचनरूप तथा ज्ञानरूप दोनों ही प्रकारसे अद्वितीय नेत्रके समान है, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको प्रत्यक्ष दिखलाता है वैसे यह भी शुद्ध प्रात्माके स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्यलिङ्गमें ममत्व करने वालोंने समयसार ही न जान पाया। अब इस प्रसंगको अन्तिम गाथामें बताया है कि पव. हारनय तो मुनिलिङ्ग व भावलिङ्ग दोनोंको मोक्षमार्ग इष्ट करता है, किन्तु निश्चयनय किसी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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