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________________ समयसार ज्योतिरुच्चरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षत एव ॥४॥ व्ययहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदच्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंबः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां प्रथमा एकवचन, कृदन्त क्रिया, परमभावदशिभिः-तृतीया बहु० कर्ताकारक । व्यवहारदेशिताः-प्रथमा चिह्नित जिनेन्द्र भगवानके वजनमें जो पुरुष रमण करते हैं—प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं, वे पुरुष स्वयं मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करते हुए इस उत्कृष्ट परमज्योतिस्वरूप सनातन, पतंग एकांत मुदपके पाशे मंडित होने वाले समयसारको निरखते हैं । भावार्थ:-जिनवचन स्याद्वादरूप है, वहाँ दो नयोंके विषयका विरोध है, जैसे जो सद्रूप है वह असद्रूप नहीं होता, जो एक है वह अनेक नहीं होता, नित्य है वह अनित्य नहीं होता, भेदरूप है वह अभेदरूप नहीं होता, शुद्ध है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयों के विषयों में विरोध है, वहां जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-प्रसद्रूप, एक-अनेकरूप, नित्यअनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है, उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, झूठी कल्पना नहीं करता । इसलिये द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक दोनों नयों में प्रयोजनके वश शुद्ध द्रध्याथिकको मुख्यकर निश्चयनय कहता है और प्रशुद्ध द्रव्याथिकरूप पर्यायाधिकको गौणकर व्यवहारनय कहता है । इस प्रकार जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं, वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ पाते हैं, अन्य सर्वथा एकांतवादी वस्तुतथ्यको नहीं पाते । अब कहते हैं कि व्यवहारनयको कथञ्चित् प्रयोजनवान कहा है तो भी यह कुछ वस्तुभूत नहीं है। "व्यवहरण" इत्यादि । प्रर्थ-यद्यपि इस प्रथम पदवीमें याने जब तक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति न हुई हो तब तकको स्थितिमें जिन्होंने अपना पैर रखा है, ऐसे पुरुषोंके लिये व्यवहारनयको हस्तावलम्बतुल्य कहा है तो भी जो पुरुष चैतन्यचमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित शुद्धनयके विषयभूत परम प्रर्थको अंतरंगमें अवलोकन करते हैं, उसका श्रद्धान करते हैं तथा उस स्वरूपमें लोनतारूप चारित्रभावको प्राप्त होते हैं, उनके लिये यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है अर्थात शुद्धस्त्ररूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राचरण होने के पश्चात् प्रशुद्ध नय कुछ भी प्रयोजनभूत नहीं है । प्रब आगेके कलशमें निश्चयसम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं - "एकत्ये" इत्यादि । अर्थशुद्धनयसे एकत्वमें नियस, अपने गुण पर्यायों में व्यापक, पूर्ण ज्ञानधन, अन्य द्रव्योंसे पृथक इस प्रात्माका जो दर्शन है यह हो नियमसे सभ्यग्दर्शन है और यह प्रात्मा उतने ही मात्र है । इस नव तत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर हमको तो एक यह प्रात्मा हो प्राप्त होगी।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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