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________________ पूर्व रंग तामा ववहाररिंगच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णे उण तच्चं । उभयनयविरोधध्वंसिनि स्थात्पदांके, जिनवचसि रमते ये स्वयं वांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परं दिशि देशने, ष्ठा गतिनिवृत्तौ। पदविवरण-शुद्धः-प्रथमा एक । शुद्धादेश:-प्रथमा एक० । ज्ञातव्यःऔर दूसरे निश्चयके किना तस्य (स्तु का नाश हो जायगा। भावार्य--लोकमें सोनेके सोलह ताय प्रसिद्ध हैं उनमें पन्द्रह ताव तक तो परसंयोग की कालिमा रहती है, अत: तब तक उसे अशुद्ध कहते हैं और फिर ताव देते-देते जब अंतिम तावसे उतरे, तब सोलहवान शुद्ध सुवर्ण कहलाता है । जिन जीवोंको सोलहवान वाले सोने का ज्ञान, श्रद्धान तथा उसकी प्राप्ति हुई है उनको पंद्रहवान तकका सोना कुछ प्रयोजनवान् नहीं है । और जिनको सोलहवान वाले शुद्ध सुवर्णकी प्राप्ति जब तक नहीं हुई तब तक पंद्रहवान तकका भी प्रयोजनीय है। उसी तरह यह जीव पदार्थ पुद्गलके संयोगसे अशुद्धअनेकरूप हो रहा है । सो जिनको सब परद्रव्योंसे भिन्न एक ज्ञायकतामाका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति हो गई है उनको तो दूगलसंयोगजनित अनेकरूपताको कहने वाला अशुद्धनय कुछ प्रयोजनवान् नहीं है, और जब तक शुद्धभावको प्राप्ति नहीं हुई है तब तक जितना प्रशद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है । अतः जिरवचनोंका सुनना, धारण करना तथा जिनवचनके कहने वाले श्री जिनगुरुकी भक्ति, जिनबिंबका दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्गमें प्रवृत्त होना प्रयाजनवान है । और जिसके श्रद्धान और ज्ञान तो हुआ, पर साक्षात्रा न हुई, तब तक परद्रव्यका प्रालंबन छोड़नेरूप अणुव्रत और महाब्रतका ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठीके ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करने वालोंकी संगति करना और विशेष जाननेके लिए शास्त्रोंका अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना तथा अन्यको प्रवृत्त करना आदि सब व्यवहारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है । व्यवहारनयको शुद्धनयके समक्ष प्रसत्यार्थ कहा गया है, यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहारको ही छोड़ देगा और चूंकि शुद्धोपयोगकी साक्षात प्राप्ति हुई नहीं, इसलिये उल्टा अशुभोपयोगमें ही आकर भ्रष्ट होकर यथाकथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा । इस कारण साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध प्रात्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न ' हो तब तक व्यवहार भो प्रयोजनवान है । ऐसा स्याद्वादशासन में श्री गुरुओंका उपदेश है। ... इसी अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकार कहते हैं- "उभय" इत्यादि । प्रर्थ-निश्चय व्यवहाररूप दो नयोंमें विषयके भेदसे होने वाले परस्परके विरोधको दूर करने वाले स्याल्पदसे
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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