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________________ ३५ पूर्व रंग नैष किंचित् ॥५॥ एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् ।। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं। तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिबहु०, पुन:-अव्यय, ये-प्रथमा बहु०, तु-अव्यथ, अपरमे-सप्तमी एक०, स्थिताः-प्रथमा बहु०, भावे भावार्थ-अपनी सभी स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अवस्थारूप गुणपर्यायभेदों में व्याप कर रहने वाला यह प्रात्मा शुद्धनयके द्वारा एकत्वमें निश्चित किया गया है-- शुद्धनयसे ज्ञायकमात्र एक प्राकार दिखलाया गया है, उसको सब अन्य द्रव्यों और अन्य द्रव्योंके भावों से पृथक् देखना और श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है । शुद्धनयका विषयभूत प्रात्मा पूर्ण ज्ञानघन है सब लोकालोकका जाननहार ज्ञानस्वरूप है, ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप जो सम्यग्दर्शन है वह कुछ प्रात्मासे भिन्न पदार्थ नहीं है, प्रात्माका ही परिणाम है । इसलिए प्रात्मा ही है । इस कारण जो सम्यग्दर्शन है बह प्रात्मा है, अन्य नहीं है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नय श्रुतप्रमाणके अंश हैं, इसलिए शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुआ । श्रुतप्रमाण है वह परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि श्रुतप्रमाणने वस्तुको प्रागमसे जाना है । यह शुद्धनय भी सब द्रव्योंसे भिन्न प्रात्माकी सब पर्यायोंमें व्यास पूर्णचंतन्य केवलज्ञानरूप सब लोकालोकके जानने वाले असाधारण चैतन्यधर्मको परोक्ष दिखलाता है, उसको यह व्यवहारी छमस्य अल्पज्ञानी जीव प्रागमसे प्रमाण मानकर सानुभव प्रात्माका श्रद्धान करे, वही श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन है । जब तक व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तब तक निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता । इसलिए प्राचार्य कहते हैं कि इन तत्त्वोंकी संतति याने परिपाटीको छोड़कर शुद्धनयका विषयभूत एक यह प्रात्मा ही हमको प्राप्त होमो, हम अन्य कुछ नहीं चाहते । यह वीतरागता पानेकी प्रार्थना है, कुछ नयपक्ष नहीं है । सर्वथा नयोंका पक्षपात मिथ्यात्व है । जैसे प्रात्मा चैतन्य है मात्र इतना ही आत्माको माने तो चैतन्यमात्र तो नास्तिकके अतिरिक्त सभी मत वाले प्रात्माको मानते हैं, यदि इतने ही श्रद्धानको सम्यक्त्व पहा लाय तो सभीके सम्यक्त्व सिद्ध हो जायगा । सो ऐसा नहीं, तो क्या है ? सर्वज्ञको वाणी में जैसा पूर्ण प्रात्माका स्वरूप कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे निश्चयसम्यक्त्व होता है । प्रब प्रागेके वक्तव्यकी उत्थानिकारूप कलश कहते हैं, 'अतः' इत्यादि । अर्थ-अब शुद्धनयके प्राधीन वह भिन्न प्रात्मज्योति प्रगट होती है जो नवतत्त्वमें प्राप्त होनेपर भी अपने एकत्वको नहीं छोड़ती। भावार्थ-नवतत्त्वोंमें प्राप्त हुमा प्रात्मा भनेकरूप दीखता है। वास्तवमें यदि इसका भिन्न स्वरूप विचारा जाय तो यह अपनी चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता। प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व यह बताया था कि किन्हींको कभी व्यवहारनय भी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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