________________
समयसार मिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ अतः शुद्धनयायसं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेपि यदेकत्वं न मुंचति ।।७।। सप्तमी एकवचन ॥१२॥ प्रयोजनवान है । इसके विवरण के साथ अब यह निश्चित किया जा रहा है कि जिनशासन में दोनों ही नप अपनी-अपनी भूमिकामें उपयोगी हैं ।
__ तथ्यप्रकाश-(१) जो सहज शुद्ध चिन्मात्र परमभावके अनुभवी हैं उनको शुद्धादेशक शुद्धनय ही ज्ञातव्य है । (२) जो जब तक परमभाव में स्थित नहीं हो सकते हैं उनको तब तक व्यवहारोपदेश उपकारी है । (३) शुद्धनय एकत्वविभक्त शुद्धद्रव्यका आदेश करता है । (४) व्यवहारनय गुणगुणीभेदरूप, नानागुणरूप, पर्यायभेदरूप अशुद्ध (भदरूप अथवा मलिन) द्रव्यका आदेश करता है । (५) व्यवहारनयके उच्छेदसे तीर्थका (प्रात्मलाभोपायका) उच्छेद हो जायगा । (६) निश्चयनयके उच्छेदसे तीर्शफलका (प्रात्मनाभका! उच्छेद हो जायगा। (७) स्याद्वादरूप जिनवचनका जो सादर अभ्यास करते हैं वे यथाशीघ्र प्रखंड समयसार (सहज परमात्मतत्व) का अवलोकन कर लेते हैं । (८) प्राक् पदवीमें व्यवहारनय उपादेय है । (६) चैतन्यचमत्कारमात्र परम भावके अनुभवने वालोंको व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजक नहीं है । (१०) ज्ञानमात्र ज्ञानघन अन्तस्तस्वका दर्शन सम्यग्दर्शन है । (११) सहज परमात्मतत्त्व शुद्धनयसे ज्ञातव्य है
सिद्धान्त--(१) शुद्धनयका विषय नयपक्षस पातकान्त अनुभाव्य समयसार है। (२) समस्त शास्त्र तत्व के प्रतिपादक हैं, अतः सभी व्यवहाररूप हैं, सो व्यवहारनयके उच्छेद से मोक्षमार्ग व उसके उपायका विनाश हो जायगा । (३) निश्चयनय परमार्थज्ञानरूप है सो निश्चयनयके उस्छेदसे आत्मोपलब्धिका उच्छेद हो जायगा ।
दृष्टि-१-- शुद्धनय (४६) । २- व्यवहार (६२ से १०२) । ३- परमशुद्धनिश्चयनयादि (४४ से ४६ तक).
प्रयोग-व्यवहारनय व निश्चयनयसे आत्मविज्ञान करके सर्व नयपक्षको गौण कर : शुद्धनयसे प्रखंड एकत्वविभक्त समयसारको ध्यान में रखे रहना चाहिये ।।१२।।
अब शुद्धनयसे जानना ही सम्यक्त्व है, ऐसा सूत्रकार कहते हैं---[भूतार्थन अभिगताः] भूतार्थनयसे ज्ञात [जीवाजीयो] जीय, अजीव [ध] और [पुण्यपापं] पुण्य, पाप [च] तथा [प्रास्रवसंवरनिर्जराः] प्रास्रव, संवर, निर्जरा [बंधः] बंध [च] और [मोक्षः] भोक्ष [सम्यक्त्वं] यह नवतत्त्व सम्यक्त्व है ।