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________________ पूर्व रंग भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवाय पुरापावं च । प्रासवसंबर णिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ॥ १३॥ भूतार्थतया सुविदित जीव प्रजीथ श्रर पुण्यपापात्र । संवर निर्जर अन्धन, मोक्ष हि सम्यक्त्वके साधक ॥१३॥ भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च । आस्रवसंवरनिर्जरा बंधों मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ॥ १३॥ ३७ अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं संपद्यंत एवामीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीव पुण्यपापास्रवसंवर निर्जराबंध मोक्षलक्षगेषु नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणायाः, संपद्यमानत्वात् । तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापं । श्रस्राव्यास्रावको भयमास्रवः संवार्य संवारकोभयं संवरः, निर्जयंनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंधः, मोच्यमोचकोभयं मोक्षः । स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रव सं बरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च नामसंज्ञ -- भूयत्य, अभिगद, जीवाजीव, य, पुण्णपाव, च, आसवसंवर णिज्जर, बंध, मोक्ख, य, तात्पर्य - एकत्वको अभिमुखता लाकर नवतत्त्वोंका जानना सम्यक्त्वको संपादित करता ही है । टोकार्थ - जो जीवादि नौ तत्थ हैं वे भूतार्थनयसे जाने हुए सम्यग्दर्शन ही हैं, क्योंकि तीर्थ ( व्यवहारधर्म) की प्रवृत्तिके लिये प्रभूतार्थनयसे कहे जाने वाले जो जीव, प्रजोव, पुण्य, पाप, श्रस्रव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले जीवादि नवतत्त्व हैं उनमें एकत्व प्रगट करने वाले भूतार्थनयसे एकत्व प्राप्त कर शुद्धनयसे स्थापित किए गए श्रात्माकी ख्याति लक्षण वाली अनुभूतिकी प्राप्ति होती है, क्योंकि शुद्धनयसे नवतत्त्वको जाननेसे आत्माकी अनुभूति होती है । वहाँ विकारी होने योग्य और विकार करने वाला ये दोनों पुण्य भी हैं और पाप भी हैं तथा साध्य व आस्रावक ( मालव करने वाले ) ये दोनों ग्रासव है: संवार्य ( संवररूप होने योग्य) व संवारक ( संवर कने वाले) ये दोनों संवर हैं, निर्जरने योग्य व निर्जरा करने बाले - ये दोनों निर्जरा हैं; बंधने योग्य व बंधन करने वाले ये दोनों बंध हैं और मोक्ष होने योग्य व मोक्ष करने वाले ये दोनों मोक्ष हैं। क्योंकि एकके ही अपने श्राप पुण्य, पाप, शासक, संबर, निर्जरा, बंत्र और मोक्षकी उपपत्ति (सिद्धि) नहीं बनती। वे दोनों जीव और प्रजोत्र हैं । इनको बाह्यदृष्टिसे देखा जाय तब जीव पुद्गलकी अनादिबंधपर्यायको प्राप्त करके उनका एकत्व अनुभव किये जानेपर तो ये नौ भूतार्थं हैं— सत्यार्थ हैं तथा एक जीवद्रव्यके ही स्वभाव को लेकर अनुभव किये जाने पर ये प्रभूलार्थ हैं--असत्यार्थ हैं । जीवके एकाकार स्वरूपमें ये
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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