________________
३८
गार जीवाजीवाविति । बहिष्टया नवतत्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबंधपर्यायमुपेत्यैकत्वनानुभूय. मानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेन को जोव एवं प्रद्योतते । तथांतर्दष्टया झायको भावो जीवो जीवस्य विकारहेतुरजोवः । केवला जीवविकाराश्च पुण्यपापाखवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणाः, केवला जीवविकारहेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षा इति । नवतत्त्वान्य मून्यपि जीवद्रव्यस्वभाव. सम्मत । धातुसंज्ञ-- अभि-गम गतौ, बंध बंधने । प्रकृतिशब्द-भूतार्थ अभिगत, जीवाजीव, च, पुण्यपाग, नहीं हैं । इसलिए इन तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे जीव एकरूप ही प्रकाशमान है । उसी तरह अंतदृष्टिसे देखा जाय तब ज्ञायकभाव जीब है और जोक्के विकारका कारण अजीव है, और केवल जीवविकार पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले हैं व जीवविकारके कारणरूप केवल अजीव पुण्य, पाप, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये नवतत्त्व जोवस्वभाव को छोड़कर स्वपरनिमित्तक एक द्रव्यपर्यायरूपसे अनुभव किए जानेपर भूतार्थ हैं तथा सब कालमें नहीं चिगते एक जीवद्रव्य के स्वभावको अनुभव करनेपर ये अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिए इन नौ तत्त्वों में भूतार्थन यसे देखा जाय तब जीव तो एकरूप ही प्रकाशमान है । ऐसे यह जीवतत्त्व एकत्वरूपसे प्रकट प्रकाशमान हुमा शुद्धनयसे अनुभव किया जाता है। यह अनुभवन ही प्रात्मख्याति है-आत्माका ही प्रकाश है, जो प्रात्मख्याति है वहीं सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार यह सब कथन निर्दोष है, बाधारहित है।
भावार्थ-इन नवतत्त्वोंमें शुद्धनयसे देखा जाय तो जीव ही एक चतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रकट हो रहा है । इसके अतिरिक्त जुदे-जुदे नवतत्त्व कुछ दिखाई नहीं देते । जब तक इस तरह जीवतत्त्वका जानना नहीं है, तब तक व्यवहारदृष्टि में होकर पृथक् पृथक नवतत्त्वोंका मानना है याने जीव पुद्गलको बंधपर्यायल्प दृष्टिसे ये पदार्थ भिन्न-भिन्न दीखते हैं और जब शुद्धनय से जीव पुद्गलका निज स्वरूप जुदा-जुदा देखा जाय, तब ये पुण्य पाप आदि सात तत्त्व चुछ भी वस्तु नहीं दीखती, वे निमित्तनैमित्तिक भादसे हुए थे सो निमित्तनैमित्तिक भाव जब मिट गया तब जीव पुद्गल जुदे जुदे होनेसे दूसरा कोई पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता । वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके हो साथ रहता है तथा निमित्तनैमित्तिक भावका प्रभाव ही होता है, इसलिए शुद्धनयसे जीवको जाननेसे ही सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। जब तक भिन्न-भिन्न नव ही पदार्थोको जाने, और शुद्धनयसे प्रातमाको नहीं जाने तब तक पर्यायबुद्धि होनेसे सम्यक्त्व नहीं होता है।
अब यहाँ इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं "चिरं" इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार