SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वं रंग ३६ पोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि अथ च सकलकालमेवास्खलंतमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमोष्वपि नवतस्त्वेषु भूतार्थनयेने को जीव एव प्रद्योतते । एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव । या त्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्या तिस्तु सम्यग्दर्शनमेवेति समस्तमेवं निरवद्यं । च आवसंवरनिर्जरा, बन्ध, मोक्ष, सम्यक्त्व । मूलघातु-अभि गम्लु गती, पुण्य-पुत्र पवने, पाप-पा रक्षणे, नो तत्वोंमें बहुत कालसे छुपी हुई यह श्रात्मज्योति शुद्धनयसे प्रकट की गई है । जैसे कि वर्णों (रंगों ) के समूह में छुपे हुए एकाकार सुवर्णको प्रकट किया जाता है । अब हे भव्य जीवो, सदा अन्य द्रव्योंसे तथा उनके निमित्तसे हुए नैमित्तिक भावोंसे भिन्न एकरूप देखो जो हर एक पर्याय में एकरूप चिचमत्कारमात्र उद्योतमान है । भावार्थ - - यह श्रात्मा सब अवस्थाओं में नानारूप दीखता था, उसे शुद्धनयने एक चैतन्यचमत्कार मात्र दिखलाया है सो अब सदा एकाकार ही अनुभवन करो । पर्यायबुद्धिका एकांत मत रखो | टीकार्थ - ब जैसे नवतत्त्वोंमें एक जीवका ही जानना भूतार्थं कहा है, उसी तरह एकत्वसे प्रकाशमान श्रात्मा के अधिगम के उपाय जो प्रमाण, नय और निक्षेप हैं, वे भी निश्चय से प्रभूतार्थं हैं, उनमें भी एक प्रात्मा हो भूतार्थ है, क्योंकि ज्ञेय और वचन के भेदोंसे वे प्रमाणादि श्रनेक भेदरूप होते हैं । उनमें से प्रमाण दो प्रकार है - परोक्ष और प्रत्यक्ष । उपात्त अर्थात् इन्द्रिय और मन, अनुपात्त अर्थात् प्रकाश उपदेशादि इन दोनों परद्वारोंसे प्रवर्तमान ज्ञानको परोक्ष कहते हैं तथा जो श्रात्माके प्रतिनियतपनेसे प्रवर्तमान हो वह प्रत्यक्ष है अर्थात् प्रमाण ज्ञान है और वह पाँच प्रकारका है— मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । उनमेंसे मति और श्रुत-- ये दो ज्ञान परोक्ष हैं, अवधि, मनःपर्यय - ये दो विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । ये दोनों तरहके हो प्रमाण याने ये सब भेद प्रमाता, प्रमाण और प्रमेयके भेदका अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और जिसमें सब भेद गौण हो गये हैं, ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर प्रभुतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । नय दो प्रकार के हैं- द्रव्यार्थिक मोर पर्यायार्थिक । उनमेंसे जो द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तु को द्रव्यत्वी मुख्यतासे अनुभव कराता वह द्रव्याधिकनय है और पर्यायकी मुख्यतासे अनुभव कराता वह पर्यायार्थिकनय है । ये दोनों ही नय द्रव्य और पर्यायको भेदरूप अनुभव करनेपर भूतार्थं हैं, सत्यार्थ हैं और द्रव्य तथा पर्याय इन दोनोंसे अनालीढ (स्वाद न लिये गये) शुद्ध वस्तुमात्र जीवके स्वभाव चैतन्यमात्रका अनुभव करनेपर वे भेदरूप नय प्रभूतायें हैं, असत्यार्थं
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy